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२६७ भारतीय स्वयंसेवक

हाल ही में नागरिक सेनाके बारेमें जो सभा हुई थी, उसमें भाषण करते हुए प्रतिरक्षा मन्त्री श्री वॉट ने "अपना बाँध तोड़ दिया" है। उनसे यह प्रश्न किया गया था :

उपनिवेशके विविध भागोंमें जिन अरबोंकी दूकानें हैं क्या सरकार उनको नागरिक सेनाकी सुरक्षित टुकड़ियोंमें भरती करनेका विचार कर रही है; और यदि ऐसा कर रही है तो क्या वह उन्हें बन्दूकें भी देगी?

हमें बताया गया है कि श्री वॉटने इसका जो उत्तर दिया उसपर हर्ष ध्वनि की गई। बताया जाता है कि उन्होंने कहा :

मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता होती है कि नागरिक सेनामें केवल यूरोपीय ही हैं। अगर मुझे अपनी एवं अपने कुटुम्बकी रक्षाके लिए अरबोंपर निर्भर रहना पड़े तो निश्चय ही दुःख होगा। किन्तु मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता है कि सरकारके हाथमें यह अधिकार है कि वह युद्धकालमें समस्त रंगदार आबादी — भारतीयों, वतनियों और अरबोंको किसी भी आवश्यक काममें लगा दे।

इसके बाद उनसे एक और प्रश्न पूछा गया :

क्या सरकार यह मानती है कि जब यूरोपीय व्यापारी सेवाके लिए बुला लिए जायेंगे तो सभी जिलोंका व्यापार अरबोंके हाथों में चला जायेगा? इसके सम्बन्धमें वह क्या करना चाहती है?

श्री वॉटका उत्तर पहले उत्तरसे मेल खाता हुआ ही था :

मेरी समझसे यह मामला ऐसा है जिसमें नेताओंकी राय ली जानी चाहिए। अगर मैं नेता होता तो सरकारको सलाह देता कि वह दूकानोंके खुलने और बन्द होनेका समय नियमित कर दे। मैं यह ध्यान रखता कि यूरोपीयोंके साथ अरबोंकी अपेक्षा बुरा बरताव न किया जाये। मैं यह व्यवस्था भी करता कि अरबोंसे उनके हिस्सेका काम लिया जाये बन्दूकें उठानेका नहीं तो खाइयाँ खोदनेका ही सही।

हमें सन्देह नहीं है कि श्री वॉट प्रतिरक्षा मन्त्रीकी हैसियतसे यह जानते हैं कि युद्धमें खाइयाँ खोदना भी उतना ही जरूरी है जितना बन्दूक उठाना। फिर यदि वे अपने और अपने कुटुम्बकी सुरक्षाके लिए अरबोंपर निर्भर रहना नहीं चाहते तो वे उनसे खाइयाँ खुदवाना क्यों चाहते हैं? स्वर्गीय श्री हैरी एस्कम्बके अनुसार, जो प्रतिरक्षामंत्री ही थे, दोनों काम एक जैसे सम्मानपूर्ण हैं। चाहे श्री वॉट, पुनर्विचारके पश्चात्, अरबों अथवा भारतीयोंसे अपनी अथवा उपनिवेशकी रक्षाका काम खाइयाँ खुदवानेके रूपमें या किसी अन्य रूपमें करवाना पसन्द करें या न करें, उनसे वे तबतक युद्ध-सम्बन्धी काम लेनेकी आशा कैसे कर सकते हैं जबतक उनको पहलेसे उसका प्रशिक्षण न दें? सेनाके असैनिक शिविर अनुचरोंमें भी उचित अनुशासनकी आवश्यकता होती है, अन्यथा वे मददगार होने के बजाय एक निश्चित मुसीबत बन जाते हैं। लेकिन एक ऐसे मन्त्रीसे हमें सामान्य विवेक अथवा न्यायसे काम लेनेकी आशा नहीं हो सकती जो अपने-आपको इतना भूल जाता है। कि निर्दोष लोगोंके पूरे समाजको व्यर्थ ही अपमानित कर बैठता है।