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सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय


२९. आपके प्रार्थीको बताया गया कि उसे स्थानिक निकायकी कार्रवाईके विरुद्ध कानूनन कोई राहत नहीं मिल सकती।

३०. इसलिए आपके प्रार्थीको अपनी दूकान बन्द कर देनेको विवश होना पड़ा है और इससे उसपर सारे माल, ऋण और उसके नौकरोंका बोझ आ पड़ा है।

३१. जहाँतक निकायका सम्बन्ध है, आपका प्रार्थी सम्मानपूर्वक निवेदन करता है कि स्थानिक निकायका कार्य ज्यादतीभरा, अन्यायपूर्ण तथा निरंकुश है; क्योंकि आपके प्रार्थीके परवानेको नया करनेसे इनकार करके उसको, बिना किसी अपराधके, और बिना किसी क्षति- पूर्तिके, जीविकाके साधनोंसे वंचित कर दिया गया है।

३२. आपके प्रार्थीका यह भी निवेदन है कि उसे जो स्पष्ट क्षति पहुँची है वह, ब्रिटिश विधान के अन्तर्गत, लाइलाज नहीं रहनी चाहिए।

३३. इसलिए आपका प्रार्थी प्रार्थना करता है कि सम्राटकी सरकार प्रार्थीकी ओरसे हस्त- क्षेप करे और जिस रूपमें उसे उचित प्रतीत हो, प्रार्थीका कष्ट दूर कराये।

और न्याय तथा दयाके इस कार्यके लिए प्रार्थी सदैव दुआ करेगा, आदि।

दादा उस्मान

डर्बन, तारीख ३०
मार्च, १९०६
[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १४-४-१९०६
 

२६५. शीघ्र दुकानबन्दी अधिनियम

कुछ लेखक शीघ्र दूकानबन्दी अधिनियमको लेकर नेटालके अखवारोंमें तिलका ताड़ बना रहे हैं। उनमेंसे अनेक खुशीसे फूले नहीं समाते कि अन्ततः उनकी स्थिति ऐसी हो गई है कि वे भारतीय व्यापारियोंको क्षति पहुँचा सकते हैं। हमारा सहयोगी 'नेटाल ऐडवर्टाइजर', हमसे सहमत होकर कहता है कि अगर शीघ्र दूकानबन्दी अधिनियम भारतीय समाजको अहितकर ढंगसे प्रभावित करनेको है तो छोटे-छोटे गोरे व्यापारियोंपर वह और भी अधिक गम्भीर असर डालनेवाला है। अगर वह इतनेपर ही रुक जाता तो हमें कुछ न कहना होता। परन्तु, वह आगे सुझाता है :

इस विषयपर विचार-विमर्श करने और एशियाई आव्रजन तथा स्पर्धापर कोई कारगर प्रतिबन्ध लगानेका उपाय सोचनेके लिए व्यापारियों और कामकाजी लोगोंकी एक आम सभा नगर भवनमें बुलाई जानी चाहिए। अगर ऐसा किया गया तो हमें कोई सन्देह नहीं कि परिस्थितिके वास्तविक तथ्य इस तरह प्रकट होंगे कि कुछ लोग आश्चर्यमें पड़ जायेंगे; और उनसे कोई सचमुच कारगर तथा उपयोगी कार्रवाई की जा सकेगी। हमारा विचार है, यह बात हँसी-खेलमें उड़ा देनेकी नहीं है। यह आत्म-रक्षाका — नेटालके सभी वर्गोंके गोरे लोगोंके लिए जीवन-मरणका सवाल है।

हम इस सुझावपर शान्तिपूर्वक विचार करेंगे।