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२५०. भारतीय स्वयंसेवकोंकी आवश्यकता

नेटालका वतनी आन्दोलन[१] मन्द गतिसे जारी है। इसमें सन्देह नहीं कि इसके भड़कनेका तात्कालिक कारण व्यक्ति कर लगाना है, यद्यपि इसकी आग सम्भवतः अरसेसे सुलग रही थी। गलती चाहे जिसकी हो, खबर है कि इसपर उपनिवेशको दो हजार पौंड प्रतिदिन खर्च करना पड़ रहा है। गोरे उपनिवेशी उसको काबूमें लानेकी चेष्टा कर रहे हैं और अनेक नागरिक सैनिकोंने शस्त्र धारण कर लिये हैं। शायद आज और किसी सहायताकी जरूरत न पड़े; परन्तु इस उपद्रवपर सरकारको और प्रत्येक विचारवान उपनिवेशीको भी विचार करना चाहिए। नेटालमें भारतीयोंकी आबादी एक लाखसे ज्यादा है। यह भी साबित किया जा चुका है कि वे युद्धकालमें अत्यन्त कुशलतापूर्वक काम कर सकते हैं।[२] आकस्मिक संकटोंमें वे बेकार हैं, इस भ्रमका निवारण हो चुका है। इन अकाट्य तथ्योंके बावजूद क्या सरकारके लिए शक्तिके इस स्रोतको, जिसे वह चाहे जिस काममें ले सकती है, बेकार जाने देना बुद्धिमत्ताकी बात है? हमारे सहयोगी 'नेटाल विटनेस' ने भारतीय समस्यापर हालमें ही एक बहुत ही विचारपूर्ण अग्रलेख लिखा है और यह प्रमाणित किया है कि उपनिवेशियोंको भारतीय प्रतिनिधित्वके सवालपर किसी-न-किसी दिन, गम्भीरतासे विचार करना ही होगा। यद्यपि भारतीय उपनिवेशमें किसी राजनीतिक सत्ताकी आकांक्षा नहीं रखते, फिर भी हम उक्त मतसे सहमत हैं। वे इतना ही चाहते हैं कि उनको उपनिवेशके साधारण कानूनोंके अन्तर्गत पूर्ण नागरिक अधिकारोंका आश्वासन दिया जाये। यह ब्रिटिश प्रदेशवासी प्रत्येक ब्रिटिश प्रजाजनका जन्मसिद्ध अधिकार होना चाहिए। किन्हीं परिस्थितियोंमें किसीको भी शरणार्थी मानने से इनकार करना उचित हो सकता है; किन्तु शिष्ट और शारीरिक दृष्टिसे सक्षम शरणार्थियोंपर निर्योग्यताएँ थोपना आर्थिक या राजनीतिक, किसी भी दृष्टिसे उचित नहीं ठहराया जा सकता। इसलिए, जब कि भारतीय प्रतिनिधित्वका सवाल निस्सन्देह बहुत ही महत्वपूर्ण है, हमारे खयालसे भारतीयोंको स्वयंसेवक बनाने का सवाल और भी ज्यादा महत्वका है, क्योंकि वह अधिक व्यावहारिक है। आजकल यह बात पूरी तरह मानी जाती है कि ऐसे बहुत-से काम हैं जिनके लिए शस्त्र धारण करना जरूरी नहीं है; किन्तु फिर भी जो उतने ही उपयोगी और सम्मानप्रद हैं जितना राइफल उठानेका काम है। अगर सरकार, भारतीयोंको उपेक्षित रखनेके बजाय स्वयंसेवकोंके काममें नियुक्त करेगी तो वह नागरिक सेनाकी उपयोगिता बहुत कुछ बढ़ा सकेगी और उपद्रवके समय, भारतीयोंपर विश्वास रख सकेगी कि वे अच्छा काम करेंगे। हमें इसमें कोई सन्देह नहीं कि भारतीयोंको देशसे बाहर खदेड़ देना असम्भव है, सरकार यह बात समझती है। तब जो सामग्री उपलब्ध है, वह उसका सर्वोत्तम उपयोग क्यों नहीं करती और इस प्रकार एक उपेक्षित समाजको राज्यकी स्थायी एवं परम मूल्यवान पूँजी क्यों नहीं बना लेती?

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १७-३-१९०६
 
  1. बम्बाटाके नेतृत्वमें जुलू विद्रोह; देखिये, "भाषण: कांग्रेसकी सभामें", पृष्ठ ३०१।
  2. इससे बोअर युद्ध में भारतीय भाहत सहायक दल द्वारा किये गये कार्यकी ओर संकेत है। देखिए खण्ड ३, पृष्ठ १३८-३९।