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"कानून-समर्थित डाका"

उचित भी था। वे सभी अर्थों में सुसंस्कृत थे। ट्रान्सवालमें भी उनकी कुछ जमीन-जायदाद थी। वे उसकी वसीयत अपने भाई और लड़केके नाम कर गये। ये दोनों प्रसिद्ध और सुशिक्षित हैं। वसीयत करनेवालेने वारिसोंके लिए जो कुछ छोड़ा था, उसको उनसे छीन लेना अब सम्भव हो गया है। और विपरीत इच्छाके बावजूद ट्रान्सवाल सर्वोच्च न्यायालयके न्यायाधीश इस अन्यायका निराकरण करनेमें असमर्थ रहे। ट्रान्सवालकी जनताको अपने सर्वोच्च न्यायालय में जैसे जज प्राप्त हैं उनसे अधिक पवित्र और स्वतन्त्र जजोंको पाना कठिनतासे ही सम्भव है। वे किंचिन्मात्र भी विद्वेषमें नहीं बहे हैं और हम जानते हैं कि वे आजसे पहले भी निर्भय फँसले देते आये हैं। इस मामलेमें पैरवी भी दक्षिण आफ्रिकाके योग्यतम वकीलने की और उन्होंने उसमें पूरे हृदयसे मेहनत की। फिर भी, जैसा कि जजोंने स्वयं ही स्वीकार-सा कर लिया है, वे न्याय करनेमें असमर्थ ही रहे। कारण खोजने दूर नहीं जाना है। १८८५ का कानून ३ एक ऐसे विधानमण्डलका पास किया हुआ है जिसको ब्रिटिश भारतीयोंकी ही नहीं, किसी भी रंगदार व्यक्तिकी भावनाओंका कोई खयाल नहीं था। स्पष्टतः जो कुछ हुआ वह अब्रिटिश था और सभ्यताके समस्त ज्ञात नियमोंका उल्लंघन मात्र था। बोअर युद्धके पहले ब्लूमफॉटीनमें जो सम्मेलन[१] हुआ था उसमें भी यह विचारका एक विषय था और जब स्वर्गीय राष्ट्रपति क्रूगर मताधिकारकी बात माननेके लिए तैयार प्रतीत होते थे, तब लॉर्ड मिलनरने ही श्री चेम्बरलेनको इस आशयका समुद्री तार भेजा था — "रंगदार लोगोंका क्या होगा?" युद्धसे पहले तो उन्हें उनकी इतनी फिक्र थी, किन्तु समयके साथ-साथ लॉर्ड महोदयके विचार भी बदल गये। आशा तो यह थी कि वे शासन सँभालते ही जो काम करेंगे उनमें से एक इस घृणित कानूनकी वापसीका भी होगा। किन्तु लॉर्ड महोदय निर्णयको टालते गये। ब्रिटिश भारतीयोंने उनसे भेंट की, और उन्होंने उनको तबतक टाला जबतक कि ट्रान्सवालके गोरे अधिवासियोंके आन्दोलनके फलस्वरूप उनके लिए विधान संहितामें से १८८५ के कानून ३ को निकालना असम्भव हो गया; और आजतक वह ट्रान्सवालके उस ब्रिटिश शासनपर, जिसके प्रधान परमश्रेष्ठ थे, अमिट कलंकके रूपमें मौजूद है। ब्रिटिश भारतीय जिस भयानक अन्यायके नीचे जिन्दगी बसर कर रहे हैं, क्या उसको उदारदलीय सरकार स्थायित्व प्रदान करेगी?

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १७-३-१९०६
 
  1. ट्रान्सवालके डचेतर गोरोंको मताधिकार देनेके विवादास्पद विषयपर १८९९ में केपके गवर्नर लॉर्ड मिलनर और ट्रान्सवालके राष्ट्रपति क्रूगरके बीच बातचीत हुई थी।