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एक अन्तर

यह बात स्पष्ट है कि यह प्रस्ताव — जैसा कि उसमें कहा गया है — सामान्यत: दक्षिण आफ्रिका हितमें नहीं, वरन् केवल ट्रान्सवालके हितमें पास किया गया है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १०-३-१९०६
 

२३९. एक अन्तर

हम सहयोगी व्यापार मण्डलोंकी कांग्रेसकी कार्रवाईपर अपने विचार प्रकट करते हुए प्रोफेसर परमानन्दकी उन कठिनाइयोंकी ओर ध्यान आकर्षित कर चुके हैं, जो केप कालोनीमें से गुजरते हुए, उनके सामने आई थीं।[१] जैसा कि विदित होगा, उनको ईस्ट लन्दनमें उतरनेकी अनुमति देनेके पूर्व परीक्षा लेकर नाहक ही अपमानित किया गया।

हम एक दूसरे स्तम्भमें श्री उमर हाजी आमद जौहरीका एक पत्र[२] छाप रहे हैं। उससे पता चलता है कि अत्यन्त प्रतिष्ठित भारतीयोंको भी दक्षिण आफ्रिकामें कितना अपमान सहना पड़ता है। श्री जौहरी दक्षिण आफ्रिकी भारतीयोंके एक नेता हैं। वे नेटालकी प्रसिद्ध पेढ़ी ई° अबूबकर आमद ऐंड ब्रदर्सका प्रतिनिधित्व करते हैं। वे एक सुसंस्कृत भारतीय हैं और यूरोप तथा अमेरिकाकी यात्रा कर चुके हैं। किन्तु फोक्सरस्टके अनुमतिपत्र अधिकारीके लिए इन बातोंका कोई महत्व न था। उसने श्री जौहरीके अनुमतिपत्रकी जाँच-मात्रसे सन्तुष्ट न होकर गुस्ताखीसे उनको अपने रजिस्टरमें अँगूठेकी निशानी लगानेके लिए कहा। हम स्वीकार करते हैं कि हमें इस प्रकारकी कार्रवाईका कोई कारण दिखाई नहीं देता। श्री जौहरी उचित रूपसे यह पूछ सकते हैं कि किसी जुर्मका, सिवा इसके कि उनकी चमड़ीका रंग भूरा है, दोषी न होते हुए भी क्या उनके साथ अपराधीके समान व्यवहार किया जायेगा।

और अभी कुछ पहले जब एक जापानी प्रजाजनके साथ अभद्र व्यवहार किया गया था तब दक्षिण आफ्रिकाके लोगोंमें बहुत रोष फैला था। हमारे सहयोगी 'ट्रान्सवाल लीडर' ने, एक रोषपूर्ण सम्पादकीयमें, श्री नोमूराको अनुमतिपत्र देनेमें विलम्ब करने और उनको अँगूठे की निशानी देनेकी अपमानजनक प्रक्रियामें से गुजारनेपर अधिकारियोंकी बड़ी लानत-मलामत की थी और ट्रान्सवालके लोगोंकी ओर से उक्त सज्जनसे सार्वजनिक रूपसे क्षमा माँगी थी।

हमारा विश्वास है कि श्री नोमूरा इस क्षमा-याचनाके अधिकारी थे। परन्तु हम जिन घटनाओंकी ओर अब ध्यान आकर्षित कर रहे हैं, उनके प्रति और इस घटनाके प्रति जनताके रुखमें जो फर्क है उसको स्पष्ट किये बिना नहीं रह सकते। हमें भय है कि प्रोफेसर परमानन्द या श्री जौहरीके पक्ष में एक हल्की-सी आवाज भी न उठाई जायेगी। निष्कर्ष स्पष्ट है। श्री नोमूरा जिस राष्ट्रके हैं वह स्वतन्त्र है और ब्रिटेनका मित्र है। परन्तु प्रोफेसर परमानन्द और श्री जौहरी आखिर ब्रिटिश भारतीय ही हैं। किन्तु थोड़ासा विचार करनेसे प्रकट हो जायेगा कि ब्रिटिश प्रजाजन भी जनताकी कमसे कम उतनी ही परवाहके अधिकारी हैं। और, यदि जैसी नीतिकी ओर हमने ध्यान खींचा है वैसी ही पर अमल होता गया तो अन्तमें साम्राज्य छिन्न- भिन्न हुए बिना न रहेगा।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १०-३-१९०६
 
  1. देखिए पिछला शीर्षक।
  2. यहाँ नहीं दिया जा रहा है।