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२३५. पत्र : छगनलाल गांधीको

जोहानिसबर्ग
मार्च ९, १९०६

चि° छगनलाल,

तुमने मुझसे उन लोगोंके नामोंकी सूची मांगी है जिन्होंने श्री नाजरकी जायदादका पैसा अदा नहीं किया है। क्या तुमने सारे मामलेकी सूची नहीं बनाई थी? १५ पौंड ५ शिलिंगका मतलब मेरी समझ में नहीं आया। मुझे कुछ ऐसा ध्यान है कि तुमने मुझसे कहा था कि सारे बिल तुमने काट दिये हैं। यदि सूची तुम्हारे पास नहीं है तो मैं भेज दूँगा; मगर यह नहीं कह सकूंगा कि पैसा किसने दिया है, किसने नहीं। बेशक थानू महाराजसे तुम्हें लेना है। भट्ट और सुभाबको परेशान मत करना, किन्तु कमसे कम वह मुनाफा तो उन्हें दिया ही जायेगा। मियाँखाँसे तुम्हें ले लेना है। कागज वापस कर रहा हूँ।

आज गुजरातीमें तुम्हारा जो पत्र मिला उसमें तुमने जिस पत्र-व्यवहारकी चर्चा की है वह नहीं मिला। अभी-अभी वह मिल गया।[१]

मैं उस्मान आमदको लिखूंगा।

निःसन्देह हम 'इस्लाम गजट' से उद्धरण लेना नहीं चाहते।

नाटकवालोंका काम तुम कर सकोगे तुम्हारा ऐसा तार मिल गया। तुम न करते तो भी मुझे पूरा संतोष रहता। मैं चाहता यह हूँ कि तुम इस बातके प्रति सावधान रहो कि वचन देनेपर पूरा किया जाये। मैं यहाँसे बिना यह जाने कि तुम कर सकोगे या नहीं, काम भेज दे सकता हूँ; मगर यदि तुम उसे न कर पाओ तो तुम्हें हमेशा उसे न करनेका अधिकार है।

अगर उस्मान आमदसे तुम्हें सन्तोष नहीं मिलता तो तुम्हें काम स्वीकार करनेसे इनकार कर देना चाहिए। यह परिस्थिति उन्हें बिलकुल साफ-साफ समझा देनी चाहिए कि हमें बाहरसे कराये गये कामका नकद चुकाना करना पड़ता है। डर कर हम कुछ भी न करें। हम सिर्फ उचित ढंग अपनाये रह कर ही लोगोंको सन्तोष देना चाहते हैं और उस मर्यादामें रहकर यदि कोई सन्तुष्ट नहीं हो पाता तो दोष हमारा नहीं है। इसलिए हमको इतना ही करना है कि दूसरोंके खयालसे असुविधाएँ स्वीकार करें, सदा शिष्ट रहें और जहाँ आवश्यक हो कष्ट उठायें। इससे अधिक कुछ करणीय नहीं है।

मुझे अभीतक कुवाडिया और पटेलके पत्र नहीं मिले हैं। वे जब मिलेंगे तब उन्हें नामंजूर कर दूंगा; किन्तु उनके जवाब में एक टिप्पणी तुम्हें भेज दूंगा।

कांग्रेस या ब्रिटिश भारतीय संघसे उन्हें निःशुल्क भेजी जानेवाली प्रतियोंका खर्च न हम ले सकते हैं, न लेना चाहते हैं। मगनलालका तार नहीं आया, यह परेशानीकी बात है।

हम अभी तो श्री दाउद मुहम्मदका चित्र नहीं देना चाहते। मगर अब्दुल कादिरका दे देना चाहिए — भले ही अगले सप्ताहमें दें।

 
  1. यह वाक्य गांधीजीके स्वाक्षरोंमें हैं।