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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इस तरह वर्ण-द्वेषने एक नया रूप ले लिया है; अर्थात् अब सामाजिक अपमानके साथ-साथ भारतीयोंकी आर्थिक क्षति भी होने लगी है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २४-२-१९०६
 

२१७. प्रतिबन्धकी लहर

ऐसा जान पड़ता है कि दुनिया भर में विभिन्न राज्य प्रतिबन्धकी नीतिका अनुसरण कर रहे हैं। तीस साल पहले, अमेरिकी प्रजातन्त्रके तत्कालीन राष्ट्रपतिने[१] यह सिद्धान्त निश्चित किया था कि हर आदमीका अमेरिकामें स्वागत है और वह उसकी धरतीपर पग रखते ही उसका नागरिक हो जाता है। आज अमेरिका दूसरी ही नीतिपर चल रहा है। इंग्लैंड तक ने विदेशियोंके आगमनपर प्रतिबन्ध लगाना जरूरी समझा है और हमने दैनिक समाचारपत्रों में प्रकाशित समुद्री तारोंमें पढ़ा है कि कुछ दिन पहले रूसियोंके अत्याचारोंसे भाग कर आये हुए कुछ यहूदियोंको इंग्लैंडमें प्रविष्ट नहीं होने दिया गया। इनमें से एक यहूदीने कहा : "मैं रूस लौटने की अपेक्षा आत्महत्या कर लेना अधिक पसन्द करता हूँ। इस स्थितिसे बचनेके लिए ही मैंने अपना सब धन खर्च कर दिया है।" तारीख १३ के 'नेटाल गवर्नमेंट गज़ट' में जर्मन दक्षिण-पश्चिम आफ्रिकी संरक्षित राज्यके एक आज्ञापत्रका अनुवाद छपा है। इसके अनुसार यदि दूसरी बातोंके साथ, प्रवेशार्थी रंगदार जातिका है तो "जर्मन दक्षिण-पश्चिम आफ्रिकी संरक्षित राज्यमें उसका प्रवेश उपयुक्त अधिकारियों द्वारा वर्जित किया जा सकता है।" उसमें और भी सामान्य निषेधात्मक धाराएँ हैं। इस प्रकार समस्त आफ्रिकामें, किसी-न-किसी रूपमें, रंग-भेदकी समस्या गम्भीर रूप लेती जा रही है। इस सम्बन्धमें यहाँ एक बात स्मरण करना उपयोगी होगा। कुछ समय पहले, जर्मन सम्राट्ने ही यह विचार प्रचारित किया था कि जापानकी विजय में पीतवर्णकी प्रभुत्व- वृद्धिके प्रयत्न बीज रूपमें छिपे हैं। यद्यपि यूरोपके कुछ हिस्सोंमें अभीतक इस विचारको मान्यता प्राप्त है फिर भी सामान्य धारणा यह है कि जर्मन सम्राट्का यह कथन अविवेकपूर्ण था और इस प्रकारका कोई भय है ही नहीं। इसके साथ ही अगर यूरोपके बड़े-बड़े राष्ट्रों द्वारा रंग-भेदका युद्ध चलाया जायेगा तो यह कहना असम्भव है कि जापान अपने नागरिकोंका खुल्लमखुल्ला अपमान होता देख कर भी सदा मौन बैठा रहेगा। यूरोपके लिए यह बात तर्क-विरुद्ध होगी कि वह एक ओर जापानको प्रथम कोटिकी शक्ति मानता रहे और दूसरी ओर उसके अधिवासियोंके साथ ऐसा व्यवहार करे, मानो वे असभ्य हों।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २४-२-१९०६
 
  1. यूलीसिस सिमोर ग्रांट (१८२२-८५), संयुक्त राज्य अमेरिकाके १८ वें राष्ट्रपति (१८६९-७७) थे। मार्च ३०, १८७० को संविधानका १५ वौं संशोधन हुआ। इसके द्वारा व्यवस्था की गई कि जाति, रंग अथवा पूर्व-दासता के कारण किसीको मताधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।