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ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय

वक्ताओंने जातियोंकी समानताका पूरा सवाल ही उठा लिया। अगर कोई रंगदार आदमी न्याय पानेकी चेष्टा करता है, तो तुरन्त शोर मच जाता है कि वह ट्रान्सवालमें गोरोंकी बराबरीका दावा करना चाहता है। स्थिति बिलकुल उपहासास्पद है। जोहानिसबर्ग में एक शक्तिशाली समाज है। उसके पास साहस, व्यवसाय-बुद्धि और साधन हैं पर जब रंगका सवाल आता है तो वह अपनी विवेक-बुद्धि खो बैठता है, और वहाँ खतरेका सन्देह करने लगता है, जहाँ कोई खतरा है ही नहीं। जोहानिसबर्गके लोग शंकित हैं कि अगर उनके साथ ट्रामोंमें रंगदार लोग भी यात्रा करने लगेंगे तो उनकी प्रधानता और श्रेष्ठता खतरेमें पड़ जायेगी। इससे हमें विद्रोहके उस निराधार भयकी याद आ जाती है जो भारतके गवर्नर जनरल लॉर्ड एलनबरोके[१] जमाने में व्याप्त था। उस जमाने में, अगर कोई छोटी-सी बात भी हो जाती थी तो तुरन्त हाय-तोबा मच जाती और घबराहट फैल जाती थी। यहाँतक कि अपने खरीतेमें परमश्रेष्ठने बड़ी सजीव भाषामें लिखा था कि सैनिक पत्तियोंकी खड़खड़ाहट या झींगुरोंकी झनकार भी सुनते हैं तो डर जाते हैं। लॉर्ड एलनबरोने शताब्दी के पाँचवें दशकके प्रारम्भमें सैनिकोंके सम्बन्धमें जो लिखा है, उससे जोहानिसबर्गके कुछ लोगोंकी हालत ज्यादा भिन्न नहीं है। श्री मैकी निवेन और उनके पाँच समर्थकोंने थोड़ा न्याय करनेकी वकालत व्यर्थ ही की। सवालके आर्थिक पहलूके बारेमें उनका तर्क अमान्य कर दिया गया और छः के विरुद्ध सोलहके बहुमत से नगर परिषदने उस अन्यायको स्थायी रूप देनेका फैसला किया, जो ट्राम-प्रणालीके मुख्य प्रबन्धकने, अपनी सिफारिशोंके रूपमें, रंगदार समाजके प्रति किया था।[२] एक वक्ताने कहा कि रंगदार लोग कोई कर नहीं देते, इसलिए उन्हें ट्रामोंका उपयोग करनेका कोई अधिकार नहीं है। ऐसी विद्वत्ताका लाभ सुसंस्कृत जोहानिसबर्गको नगर-परिषदके सदस्योंसे मिलता है। उक्त सदस्य आसानीसे यह बात भूल गया कि भारतीय जोहानिसबर्ग में मकानोंमें ही रहते हैं, और उनके लिए उनको किराया और कर दोनों ही देने पड़ते हैं। हम उनको सूचित करना चाहते हैं कि लगभग ४,००० रंगदार लोगोंको, जो मलय बस्तीमें रहते हैं, अपने कब्जेके बाड़ोंका मामूलीसे ज्यादा किराया और कर अदा करना पड़ता है। उनमें और जोहानिसबर्गके दूसरे अधिवासियोंमें फर्क यह है कि उनको ज्यादा कर देकर भी वे सेवाएँ प्राप्त नहीं हैं जो दूसरोंको हैं। मलय बस्तीकी सड़कोंसे जो भी गुजर चुका है, इसकी तसदीक कर सकता है। ट्रान्सवालमें स्थायी रूपसे आबाद भारतीयको, जो अभी लौटा है, यहाँ पहुँचनेपर पता चलेगा कि वह न केवल ट्रामोंके उपयोगसे वंचित कर दिया गया है, बल्कि अपनी पसन्दकी किसी रेलगाड़ीसे यात्रा भी नहीं कर सकता, क्योंकि रेल प्रशासनने भी रंगदार लोगों द्वारा कुछ सार्वजनिक रेलगाड़ियोंका उपयोग वर्जित कर दिया है। एक अन्य स्तम्भमें हम वह पत्र-व्यवहार छाप रहे हैं जो कार्यवाहक मुख्य यातायात प्रबन्धक और ब्रिटिश भारतीय संघ के अध्यक्षके बीच हुआ है।[३] इससे यह मालूम होता है कि रेल प्रशासनने स्टेशन-मास्टरोंको सूचना दे दी है कि वे जोहानिसबर्ग और प्रिटोरियाके बीच चलनेवाली कुछ रेल-गाड़ियोंमें भारतीयों तथा दूसरे रंगदार लोगोंको बैठनेकी इजाजत न दें। श्री अब्दुल गनीने रेलवे-प्रशासनको इसके सम्बन्धमें कड़ा विरोधपत्र भेजा है और हम केवल आशा कर सकते हैं कि भारतीयोंको अपमानित करनेका यह बिलकुल नया तरीका खत्म कर दिया जायेगा। किन्तु इसमें सवाल सिर्फ व्यापारियोंकी बेइज्जतीका ही नहीं है, उनकी असुविधा और हानिका भी है।

 
  1. १८४२-४४।
  2. देखिए "पत्र : टाउन क्लार्कको", पृष्ठ १९४-५।
  3. देखिए "पत्र : कार्यवाहक मुख्य यातायात प्रबन्धकको", पृष्ठ १९९।