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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

निस्सन्देह उनमें भिन्न-भिन्न बातोंका विचित्र मिश्रण था। उस मृतात्माके चरित्रकी छानबीन करना इस लेख लेखकका उद्देश्य नहीं है। श्री नाजरकी टक्करका व्यक्ति भारतीयोंको बहुत खोजके बाद ही मिल सकेगा। वे प्रशंसासे घृणा करते थे और अपनी प्रशंसा नहीं चाहते थे। कोई उनकी प्रशंसा करता या निन्दा, उससे उनकी सार्वजनिक प्रवृत्तियोंपर कोई असर नहीं पड़ता था। ऐसे निःस्वार्थ कार्यकर्त्ता हमें सर्वत्र सुगमतासे नहीं मिलते। सभी जातियों में वे इने-गिने ही होते हैं। समय ही बतायेगा कि श्री नाजरकी मृत्युसे भारतीय समाजको और, क्या मैं कहूँ कि, यूरोपीय समाजको भी कितनी हानि उठानी पड़ी है।

मो° क° गांधी

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २७-१-१९०६
 

१९५. काले और गोरे लोग

उक्त शीर्षकसे इसी[१] महीनेकी ५ तारीखको श्री एच° डब्ल्यू° मैसिंघमने 'डेली न्यूज' में रंगदार जातियोंके प्रति दक्षिण आफ्रिकी गोरोंके रुखके बारेमें एक जोरदार लेख लिखा है। श्री मैसिंघमने मानव हितकी उसी भावनाके साथ, जिसे हम उनके नामसे सम्बद्ध करनेके आदी हैं, रंग-भेदके प्रश्नपर लोगों में फैले हर एक भ्रमका निराकरण किया है और दक्षिण आफ्रिकाकी रंगदार जातियोंकी बहुत बड़ी सेवा की है। हम उनके इस विषयपर विचारनेके तरीकेमें कोई भी दोष नहीं पाते, परन्तु उनके लेखके उस हिस्सेमें, जहाँ उन्होंने ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीयोंके सवालका जिक्र किया है, कुछ त्रुटियाँ हैं। हम उनको ही यहाँ बताना चाहते हैं। प्रकट है कि श्री सिंघमकी राय में १८८५ के कानून ३ में भारतीयोंके द्वारा जमीनकी मिल्कियत लेनेका निषेध नहीं है। निस्सन्देह उनकी यह दलील बिलकुल गलत है। श्री मैसिंघमकी यह मान्यता भी गलत है कि भारतीयोंको "अब भी शहरोंमें पैदल पटरियोंपर चलनेकी अनुमति" है। यह कानूनकी दृष्टिसे सही नहीं है, क्योंकि एक विख्यात कानूनी फैसलेके अनुसार किसी भारतीयको नगरपालिकाकी पैदल पटरियोंका इस्तेमाल करनेका अधिकार नहीं है और पुलिसका कोई भी सिपाही, जो उसे पैदल पटरीपर चलता देखे, उसको अशिष्टतासे बीच सड़कपर चलनेकी आज्ञा दे सकता है। यहाँ बसी हुई रंगदार जातियोंके बारेमें विचार करते वक्त दक्षिण आफ्रिकी गोरोंमें अहम्मन्यताके साथ उपहास करनेकी दुर्भाग्यपूर्ण परम्परा पड़ गई है। श्री मैसिंघमने उसका जो सामयिक विरोध किया है उसका मूल्य उपर्युक्त त्रुटियोंसे कदापि कम नहीं होता।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ३-२-१९०६
 
  1. "इसी" शब्दसे स्पष्ट है कि यह लेख प्रकाशनसे कमसे-कम तीन दिन पूर्व जनवरी में लिखा गया था। देखिए श्री सिंघमके लेखफा परिशिष्ठ।