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मनसुखलाल हीरालाल नाजर

उन्होंने एकसे अधिक बार यूरोपका भ्रमण किया था। किन्तु उनको वहाँ व्यापारिक मामलोंमें वांछित सफलता नहीं मिली। इसलिए वे दक्षिण आफ्रिकामें आ गये। उन्होंने नेटालको अपना देश बना लिया था और यहां उन्होंने जो कुछ किया वह सबको मालूम ही है। वे अपने व्यवसायका विकास करनेके बजाय तन-मनसे सार्वजनिक कामोंमें जुट पड़े। १८९७ में वे ब्रिटिश भारतीयोंकी शिकायतोंको व्यक्त करनेके लिए विशेष प्रतिनिधि बनाकर इंग्लैंड भेजे गये। वहाँ वे स्वर्गीय सर विलियम विल्सन हंटर, सर लेपेल ग्रिफिन, माननीय दादाभाई नौरोजी, सर मंचरजी भावनगरी और दूसरे कई लोक-नेताओंसे मिले। सर विलियम हंटर तो श्री नाजरकी योग्यता और सौम्यतासे इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने 'टाइम्स' में श्री नाजरके कार्यका जिक्र करते हुए एक विशेष लेख लिखा। स्वर्गीय लॉर्ड नॉर्थब्रुक, लॉर्ड रे तथा दूसरे आंग्ल भारतीयोंने धीरजसे उनकी बातें सुनी और उनके परिश्रमका फल यह निकला कि पूर्व भारत संघने बड़ी सरगर्मीसे ब्रिटिश भारतीयोंके मामलेको हाथमें ले लिया। मैं इस सम्बन्धमें श्री नाजरके कार्यपर जोर देना नहीं चाहता। मैं कोई मतभेदकी बात कहना नहीं चाहता। उनका सबसे अधिक अमर कार्य तो गुप्त रूपसे ही किया गया था और वह काम था दक्षिण आफ्रिकाकी दो जातियोंके बीच पारस्परिक सद्भावके कोमल पौधेको सींचना। उन्होंने दोनोंके बीच कड़ीका काम किया। वे एक ऊँचे दर्जे के राजनीतिज्ञ थे। उनकी प्रवृत्ति उत्तेजना फैलानेकी तनिक भी न थी। उनका सब कार्य शान्तिपूर्ण होता था। वे एक जातिकी खूबियाँ दूसरीको बताया करते थे। उन्होंने हर मौकेपर अपने देश-बन्धुओंके अधिकारोंकी जोरदार वकालत की, परन्तु साथ ही उनका ध्यान उनकी जिम्मेदारियोंकी ओर भी खींचा और उनको सदा बुद्धिमत्ता और धीरजसे काम करनेकी सलाह दी। वे विशेष रूपसे गरीबोंके मित्र थे। भारतीयोंके सबसे गरीब वर्गको उनके रूपमें एक सच्चा सलाहकार और मित्र मिला था। उन दिनों जब नेटाल भारतीय आहत-सहायक दलका' संगठन किया गया तब उनको दिलकी बीमारी थी। इसलिए उनको सभीने यह सलाह दी कि दलके काममें उनका अमली हिस्सा लेना जरूरी नहीं है। परन्तु उन्होंने किसीकी नहीं सुनी और उसके लिए सदस्यके रूपमें अपनी सेवाएँ अर्पित की। वहाँ उन्होंने अपने चिकित्सा शास्त्र-ज्ञानका एक सत्कार्यमें प्रयोग किया।

उनकी मददके बिना यह पत्र कभी न निकल पाया होता। श्री नाजरने इसकी प्रारम्भिक संकटावस्थामें लगभग समस्त सम्पादकीय भार अपने ऊपर ले रखा था और उन्होंने इसके सम्बन्धमें जो कार्य किया, बहुत कुछ उसके कारण ही यह पत्र उदार नीति और गम्भीर विचारोंके लिए प्रसिद्ध है।

मेरा कथन है कि वे एक सच्चे योगी और विश्व-प्रेमी हिन्दू थे, जो जाति और धर्म- सम्बन्धी भेदोंको मानते ही न थे। इससे जो भारतीय इस विवरणको पढ़ेगा, वह भली भाँति समझ जायेगा कि वे क्या थे। उनको जीवनमें शान्ति देनेवाली एक मात्र पुस्तक थी 'भगवद्- गीता'। उनको उसके तत्वज्ञानसे प्रेरणा मिली थी। मूल गीता उनको लगभग कण्ठस्थ थी और इस लेखके लेखकको यह निजी जानकारी है कि वे गीताकी शिक्षाओंके प्रभावसे ही कठिन- तम परीक्षाओंमें भी लगभग पूर्णतः शान्त चित्त बने रह सकते थे। और वे ऐसी बहुत-सी परीक्षाओंमें से निकले थे। एक कट्टर हिन्दूको उनके कुछ तौर-तरीके विचित्र मालूम होंगे; किन्तु

१. (१८४०-१९००), भारतीय मामलों के विशेषज्ञ और कांग्रेसकी ब्रिटिश समितिके एक प्रमुख सदस्य । देखिए खण्ड १, पृष्ठ ३९६ ।

२. भारतीय नागरिक सेवाके सदस्य और पंजाबके एक अधिकारी।

३. १८९९-१९०२ के बोअर युद्ध में गांधीजीने इसका संगठन किया था। देखिए खण्ड ३, पृष्ठ १४७-५२ ।