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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

गृहमें पड़े रहते थे और थोड़ेसे दूध और बिस्कुटोसे ही दिन काट देते थे। श्री नाजरने किसी प्रकारका दिखावा किये बिना जो सेवाएँ की हैं, उनका स्वरूप और मूल्य केवल समय आनेपर ही प्रकट होगा।

वे उन्नीसवीं सदीके छठे दशकके आरम्भमें पैदा हुए थे। वे कायस्थ जातिके थे जो भारतकी एक अत्यन्त सुसंस्कृत जाति है। उनके वंशकी परम्पराएँ ऊँची थीं। जैसा कि उनके पारिवारिक नामसे प्रकट है, नाजर लोग पहले मुगल बादशाहोंके विश्वसनीय कर्मचारी रहे होंगे। इस संस्मरणके नायकके पिता स्वर्गीय श्री हीरालाल नाजर पश्चिमी सूबेके' उन लोगोंमें से थे जिन्होंने सबसे पहले अंग्रेजी शिक्षा पाई थी और वे सरकारके एक परखे हुए सेवक थे। वे सिविल इंजीनियर थे और उन्होंने अपनी योग्यतासे तथा चरित्र-बलसे इतना विश्वास प्राप्त कर लिया था कि सरकारने उनको बम्बईके किलेकी गुप्त रक्षा-व्यवस्थाकी जानकारी हासिल कर लेनेकी इजाजत दे दी थी। श्री नाजर स्वर्गीय न्यायमूर्ति नानाभाई हरिदासके बहुत नजदीकी रिश्तेदार थे। उनकी शिक्षा बम्बईमें हुई थी और मैट्रिककी परीक्षा विशेष योग्यताके साथ पास करनेके बाद वे बम्बईके एलफिन्स्टन कॉलेजमें पढ़े थे। वे प्रायः अपने दर्जेमें अव्वल आते थ और लक्षणोंसे लगता था कि वे जीवनमें बहुत उन्नति करेंगे। परन्तु उनके मनमें बेचैनी थी, इसलिए उन्होंने अपना अध्ययन कभी पूरा नहीं किया। उन्होंने श्री दादाभाई नौरोजी और उस जमानेके दूसरे महान भारतीय देशभक्तोंसे अपना जीवन देशकी सेवामें लगा देनेकी प्रेरणा प्राप्त की थी। इसलिए उन्होंने एक उपस्नातक संघ (अंडर ग्रैजुएट्स असोसिएशन) नामकी संस्था खोली, जो सर फीरोजशाह मेहता' जैसे तेजस्वी व्यक्तिकी अध्यक्षतामें पहलेसे मौजूद स्नातक संघ (ग्रैजुएट्स असोसिएशन) का मुकाबला करती थी। उन्होंने विश्वविद्यालय सम्बन्धी सुधारके बारेमें जो प्रार्थनापत्र लिखे और सरकारको भेजे थे उनसे उनकी ओजपूर्ण लेखन कला और राजनीतिक मनोवृत्तिका पता लगता है। उन्होंने ग्रँट मैडिकल कॉलेजमें भी चार साल तक शिक्षा प्राप्त की थी। इससे उन्हें चिकित्सा शास्त्रका अच्छा ज्ञान हो गया था, जो उनके जीवनके पिछले दिनोंमें बहुत उपयोगी साबित हुआ। श्री नाजर नौकरी करना नहीं चाहते थे। वे श्री दादाभाई नौरोजीके विचारोंके कायल थे; इसलिए उनकी धारणा थी कि भारतकी मुक्ति आन्तरिक और बाह्य दोनों ओरसे ही होनी जरूरी है। वे यह भी मानते थे कि शिक्षाको पद-प्राप्तिका साधन नहीं बनाना चाहिए और न उसे व्यापारसे ही अलग रखना चाहिए। इसलिए वे और उनके योग्य भाई इंग्लैंड चले गये और पूरी शक्तिसे व्यापारिक संघर्षमें कूद पड़े। परन्तु श्री नाजर सदा राजनीतिज्ञ पहले थे और अन्य सब कुछ बादमें। इसलिए उन्होंने लन्दनमें भी अपनी सार्वजनिक सेवा जारी रखी। वे कई उपयोगी संस्थाओंसे घनिष्ठ रूपसे सम्बद्ध थे और क्रिश्चियानियामें जो प्राच्य विद्या परिषद (ओरिएंटल कांग्रेस) हुई उसके प्रतिनिधि चुने गये थे। वे स्वर्गीय प्रोफेसर मैक्समूलर तथा दूसरे कई प्राच्य विद्या-विशेषज्ञोंके सम्पर्कमें आये और प्राच्य साहित्यके अपने प्रामाणिक ज्ञानकी बदौलत उनकी निगाहोंमें ऊँचे उठे। लेकिन श्री नाजर इसके अलावा कुछ और भी थे। वे बहुत ऊंचे दरजेके पत्रकार थे। किसी समय 'एडवोकेट ऑफ इंडिया' पत्रसे उनका बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध था और उसमें उन्होंने पारिश्रमिक लिये बिना बहुत-से लेख लिखे थे। वे भारतके बहुतसे प्रसिद्ध पत्रोंको भी संवाद भेजते रहते थे, मानो नेटालमें इसी तरहका जीवन बितानेकी तैयारी कर रहे हों।

१. बम्बई।

२. भारतीय कांग्रेसके एक प्रमुख नेता, देखिए खण्ड १, पृष्ठ ३९५।

३. १९२५से इसका नाम ओस्लो है और यह नार्वेकी राजधानी है।