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मनसुखलाल हीरालाल नाजर

इससे भी एक कदम आगे जा सकते हैं और कह सकते हैं कि निर्धनतम व्यक्ति कर चुकानेके लिए चीर-फाड़के निमित्त अपना तन गिरवी रखकर रुपया प्राप्त कर सकता है। परन्तु हम यहाँ यह बता दें कि इस कानूनकी धारा १४ (४) के अनुसार,

जो व्यक्ति यह साबित कर देगा कि वह गरीबीके कारण कर नहीं चुका सकता, वह फिलहाल इस करसे मुक्त कर दिया जायेगा, किन्तु बादमें कर चुकाने योग्य होनेपर भी यदि वह कर नहीं चुकायेगा तो सरकार उसके इस बहानेके कारण उसपर मुकदमा चलाने या उसके विरुद्ध कार्रवाई करनेसे न रुकेगी।

इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि वे लोग, जिनकी स्थिति ऐसी है जैसी संवाददाताने बताई है, अपनेको गरीब बता सकते है और बादमें अपनी फसलोंकी बिक्रीसे कर चुका सकते हैं। उन्हें अपनी कच्ची फसलोंपर कर्ज लेने (और बेजा ब्याज देने) की जरूरत नहीं होगी, क्योंकि कानूनमें ऐसी ही अनिश्चित स्थितिके लिए व्यवस्था की गई है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २०-१-१९०६


१९४. मनसुखलाल हीरालाल नाजर'

दिसम्बर १८९६ के कुसमयमें, जब मनसुखलाल हीरालाल नाजर डर्बनमें उतरे तब वे बिलकुल अजनबी थे। वे यहाँ शान्तिपूर्ण जीवन बिताना चाहते थे, परन्तु जब उन्होंने देखा कि उस कठिन कालमें उनके स्वदेशवासियोंको पथदर्शकको आवश्यकता है तो उन जैसा देशभक्त चुप बैठा न रह सका। उस समय डर्बनमें भारतीय-विरोधी प्रदर्शन' जोरपर था। भारतीयोंके प्रवेशके खिलाफ नगर सभा भवनमें विरोध सभाएँ की गई। 'नादरी' तथा 'कूरलैंड जहाजोंके भारतीय मुसाफिरोंको धमकियाँ दी गईं कि वे नेटालके तटपर उतरनेका प्रयत्न करेंगे, तो परिणाम भयानक होगा। तभी नाजर घटना-स्थलपर पहुँचे और भारतीयोंने उनका स्वागत अपने त्राताके रूपमें किया। कोई भी नहीं जानता था कि वे कौन है, किन्तु भारतीय नेता उनके आकर्षक व्यक्तित्वसे और उस अधिकारमय ढंगसे जिससे वे लोगोंके तत्कालीन कर्तव्यके बारेमें बोलते थे, तुरन्त उनकी ओर आकर्षित हो गये। यह कहना कठिन है कि यदि श्री नाजर उस समय न आये होते तो भारतीय समाजने क्या किया होता। वे श्री लॉटनके साथ, जो भारतीयोंके सलाहकारके रूपमें काम कर रहे थे, आवश्यक परामर्श करते रहे और मुझे खुद श्री लॉटनने बताया है कि श्री नाजरने उस समय उनको जो सहायता और सलाह दी वह अत्यन्त मूल्यवान सिद्ध हुई। उस दिनसे लेकर मृत्यु पर्यन्त श्री नाजरने सदा लोकहितको अपने हितोंके मुकाबले पहला स्थान दिया। उनका एकान्त जीवन बितानेका स्वप्न कभी पूरा नहीं हुआ और यद्यपि लोगोंको यह जाननेका मौका कभी नहीं मिला, परन्तु अपने देश-बन्धुओंके हितार्थ वे मरते वक्त तक कंगाल ही रहे। वे कभी-कभी बहुत दिनों तक लगातार डर्बनसे दूर सिडनहमके' एक एकान्त

१. जनवरी २०, १९०६ को स्वर्गवास हुआ।

२. देखिए खण्ड २, पृष्ठ १६६ और आगे।

३. डर्बनका एक उपनगर।