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१९०. भविष्यकी थाह

पिछले हफ्ते हमने अभी समाप्त सालमें दक्षिण आफ्रिकी भारतीयोंकी स्थितिका पर्यवेक्षण' किया था। इस हफ्ते हम भविष्यमें पैठकर देखना चाहते हैं कि शुभतर आशाकी कोई सम्भावना है या नहीं। हमारा खयाल होता है, ऐसी सम्भावना है। पहले तो इसलिए कि भारतीय पक्ष न्यायपूर्ण है और हर न्यायपूर्ण पक्ष अपना बल आप ही होता है। अतएव, स्वयं भारतीय ही उसको अपनी निराशा और तज्जनित निष्क्रियतासे नष्ट कर सकते हैं। दूसरे, यद्यपि लॉर्ड सेल्बोर्नने अपनी ब्रिटिश भारतीय-सम्बन्धी नीतिका कोई संकेत नहीं दिया है, फिर भी उन्होंने सम्राटको सम्पूर्ण प्रजाकी निष्ठापूर्वक सेवा करनेकी इच्छा व्यक्त की है। उनकी यह इच्छा इस बातकी आशा रखनेका एक बहुत अच्छा आधार है कि जब ट्रान्सवालमें वास्तविक कानून बनेगा, तब वे उसे ऐसा रूप दे देंगे जिससे कमसे कम वर्तमान असहनीय अनिश्चितता तो समाप्त हो ही जायेगी और वर्तमान एशियाई कानूनमें निहित मनमाने अपमानका भी अन्त हो जायेगा। अगर ट्रान्सवालमें ऐसी हालत कायम हो जायेगी तो शायद यह खयाल करना अनुचित न होगा कि इससे दक्षिण आफ्रिकाके दूसरे हिस्सोंमें भी भारतीयोंकी स्थिति एक हद तक सुधर जायेगी, क्योंकि अन्य आफ्रिकी उपनिवेश ट्रान्सवालका अनुकरण करते हैं। किन्तु हमें अधिकार है कि इन सबसे पहले हम नई ब्रिटिश सरकारसे स्थितिमें सुधारकी आशा करें। श्री जॉन मॉर्ले कोटि-कोटि भारतीयोंके हितोंके रक्षक हैं। हमारे पास यह खयाल करनेका पर्याप्त आधार है कि यह सरकार अगले आम चुनावको झेल ले जायेगी और ब्रिटिश लोकसभामें अच्छा-खासा कामचलाऊ बहुमत प्राप्त कर लेगी। श्री जॉन मॉर्लेने जिस कामको भी हाथमें लिया है उसको अबतक कभी बेमनसे नहीं किया है। सभी जानते है कि उनकी सहानुभूति दुर्बल पक्षके साथ रहती है। इसलिए वे दक्षिण आफ्रिकी भारतीयोंकी विनम्र अपीलको अवश्य ही भली भाँति सुनेंगे। स्वशासित उपनिवेशोंकी स्वतन्त्रतामें हस्तक्षेप कितना ही अकर्तव्य क्यों न हो, दुर्बल पक्षपर बलवान पक्षके अत्याचारको रोकनेका उपाय अवश्य ही उनके हाथमें है। और यह आशा करनेका आधार भी है कि लॉर्ड एलगिन' ब्रिटिश भारतीयोंके हितोंका बलिदान न करेंगे। परन्तु, अवश्य ही, सबसे ज्यादा जरूरी है भारतीय समाजका आन्तरिक प्रयत्न । हमने बाह्य परिस्थितियोंकी ओर संकेत यह दिखानेके लिए किया है कि दक्षिण आफ्रिकामें ब्रिटिश भारतीयोंकी स्थिति बिलकुल खराब नहीं है, किन्तु उस स्थितिमें किसी प्रकारके सुधारका प्रमुख उपाय स्वावलम्बन ही हो सकता है। जबतक स्वयं भारतीय हार्दिक सहयोग न दें तबतक कोई भी उपनिवेश-मंत्री, या भारत-मंत्री, या उच्चायुक्त, भारतीयोंकी कोई बड़ी भलाई नहीं कर सकता, चाहे वह उनसे कितनी ही सहानुभूति रखता हो और उनकी कितनी ही सहायता करना चाहता हो । भारतीयोंको अपनी लड़ाइयाँ लड़ने में अपने उद्देश्यकी उपयोगिता, सहकार और अथक श्रमका परिचय देना ही चाहिए। हमारे गुजराती स्तम्भोंसे प्रकट है कि समस्त दक्षिण आफ्रिकामें लोग इन गुणोंको अधिकाधिक मात्रामें प्राप्त करनेकी आकांक्षा रखते हैं। आज बंगालमें जो कुछ हो रहा है उससे हमें अधिक प्रयत्न करनेका पर्याप्त प्रोत्साहन मिला है। उस प्रान्तके भारतीय अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियोंमें भी सहकार, आत्मत्याग और धैर्यकी अभूतपूर्व भावनाका

१. देखिए “पर्यवेक्षण", पृष्ठ १७६-७।

२. (१८३८-१९२३), भारत-मन्त्री, १९०५-१०।

३. उपनिवेश मन्त्री, १९०५-८।

४. यह संकेत बंग-भंगके विरुद्ध आन्दोलनकी ओर है