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१७४. लन्दन भारतीय समाज और प्रोफेसर गोखले

प्रोफेसर गोखलेने कुछ ही समयमें इंग्लैंडको हिला दिया है। उनके और भारतके पितामह दादाभाई नौरोजीके लिए लन्दन भारतीय समाज (लंदन इंडियन सोसायटी) ने एक सभा की थी। उस समय प्रोफेसर गोखलेने जो भाषण किया था उसका सारांश हम नीचे दे रहे हैं, क्योंकि वह भाषण बड़ा ही जानने योग्य और विचार करने योग्य है। उसका मुख्य तात्पर्य यह है कि भारतमें शिक्षाका प्रचार किया जाये। उसी दौरानमें हम अंग्रेजीमें लेख लिख चुके है। हम मानते हैं कि शिक्षाके बिना दक्षिण आफ्रिकामें भी हम लोग सुखी होनेवाले नहीं हैं। इस युगमें शिक्षा ही सबसे बड़ा साधन है। प्रोफेसर गोखलेने स्वयं अपने २० वर्ष फर्ग्युसन कॉलेजको अवैतनिक रूपसे दिये हैं; और इस समय वे जो देश-सेवा करते हैं, वह कंगाली भुगत कर ही। शाही विधान परिषदके सदस्यकी हैसियतसे उनकी मासिक आय १००० रुपये है। उसे भी वे अपने लिए खर्च नहीं करते, बल्कि देश-हितमें लगा देते हैं। अपने भाषणमें वे कहते हैं:

'२० वर्ष पूर्व जब मैने विश्वविद्यालय छोड़ा और देशको सेवा शुरू की तब राष्ट्रीय कांग्रेसका प्रथम अधिवेशन हुआ था। उस समय आप (श्री बनर्जी) उसके प्रथम अध्यक्ष थे। तबसे लेकर आज तक आप देश-सेवा करते हैं और आज भी अस्वस्थ होते हुए यहाँ उपस्थित हैं। आपकी इस सेवाको आपका देश कभी भूल नहीं सकता। मैं आज अधिक कहना नहीं चाहता। श्री बनर्जी और श्री दादाभाई भारतकी सेवा करते-करते वृद्ध हुए हैं। उनके समक्ष मैं क्या बोलूं? फिर भी दादाभाईकी जीवनीसे हमें क्या सीखना है, इस विषयपर बोले बिना मुझसे नहीं रहा जाता। इन्होंने हमसे जो शब्द कहे हैं वे सब तपे हुए हैं। उन्होंने स्वयं अपने अनुभवसे वे शब्द कहे हैं। इस प्रकार बोलनेका अधिकार केवल उनको ही है। आजके जमानेके हम लोगोंको इस तरह बोलनेका हक नहीं है।

हमारी हालत कैसी है यह आप सब जानते हैं। मैं तो यह भी कहता हूं कि वह इससे भी ज्यादा खराब होनेवाली है। हमें अपने श्रमपर भरोसा रखना है। हम अपने देशके लिए जो आशा रखते हैं उसे सफल करना हो तो हमें अपने उत्तरदायित्वका खयाल करना होगा। हमपर मुसीबतें है, यह समझ कर बैठे रहनेसे मुसीबतें दूर होनेवाली नहीं हैं। जवानोंको जी-जानसे संघर्षमें कूद पड़ना है। हमपर बादल घिर आयें तो उनसे हमें डरना नहीं है। ऐसे ही समय खरे मनुष्यकी कसौटी होती है। यदि हम खरे रहेंगे तो परिणाम अच्छा ही होगा। जापान और रूसमें जो घटनायें हो रही हैं उनसे हमें सबक सीखना है। मेरा विचार है कि ऐसा समय आ गया है कि हमारे जवानोंको अपने देशके लिए सर्वस्वका त्याग करनेकी आवश्यकता है। यदि हम सब स्वार्थमें डूबे रहे और फिर देशकी हालत न सुधरे तो इसमें औरोंको दोष देनेका हमें हक नहीं है। देश में सच्ची जरूरत शिक्षाकी है। शिक्षाका अर्थ ककहरा सीखकर बैठ जाना नहीं है, बल्कि यह

१. शनिवार, नवम्वर ११, १९०५ को श्री डब्ल्यू० सी० बनर्जीकी अध्यक्षतामें।

२. देखिए “भारतमें अनिवार्य शिक्षा", पृष्ठ ९४-५ ।

३. शाही विधान परिषदके सदस्योंका वेतन उस समय ५,००० रुपये वार्षिक था ।