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१६२. कटौती और व्यक्ति-कर

गत मंगलवारको डर्बन नगर-परिषदकी बैठकमें महापौरने बताया कि नगरपालिकाके जिन विभागोंमें वतनी और भारतीय कर्मचारी काम करते हैं उन सबके अध्यक्षोंके साथ उन्होंने भेंट की और इस सुझावपर विचार किया कि वतनी और भारतीयोंकी मासिक मजदूरीमें दस प्रतिशतकी कमी कर दी जाये। इसे परिषदने भी स्वीकार कर लिया है और इसपर १० नवम्बरसे अमल शुरू हो जायेगा।

स्पष्ट है कि न तो परिषदने और न विभागीय अध्यक्षोंने इस बातपर विचार किया कि जिन अभागे व्यक्तियोंपर इस निर्णयका असर पड़ेगा उनकी कठिनाई कितनी अधिक बढ़ जायेगी। जो स्वतन्त्र भारतीय नगर-निगममें काम करते हैं वे प्राय: सभी गिरमिटिया वर्गसे आये हैं और उनको ब्रिटिश उपनिवेशमें स्वतन्त्र ब्रिटिश प्रजा कहलानेका विशेषाधिकार पानेके लिए ३ पौंड वार्षिक कर देना पड़ता है। अब इसके (गरीब आदमीके लिए तो यही बहुत अधिक है) अतिरिक्त १ पौंड वार्षिक कर और लगेगा। ये लोग इस अतिरिक्त बोझको कैसे उठायेंगे और अपने कर कैसे अदा करेंगे, यह तो अधिकारी ही जानें। हम केवल इतना ही कह सकते है कि वेतनमें कटौतीकी इस विधिसे परिषदकी मानव-भावनापर कोई अच्छा प्रकाश नहीं पड़ता, और यह कि इसपर अमल करनेका यह अवसर विशेष रूपसे असामयिक है।

उसी बैठकमें परिषदने निश्चय किया कि नगरके बिजली-इंजीनियरके सहायकका वेतन बढ़ाकर ४०० पौंड वार्षिक कर दिया जाये। कटौतीकी यह विधि सारे उपनिवेशमें लागू होती है। इसपर हमारे जागरूक सहयोगी 'ट्रेड ऐंड ट्रान्सपोर्ट' ने लिखा है : अभीतक 'गजट'ने यह नहीं बताया कि सरकारने जिन नागरिक कर्मचारियों (सिविल सर्वेट्स) को इसलिए चुना था कि आर्थिक कठिनाईमें उपनिवेशकी सहायता करनेके प्रयो- जनसे वे अपने वेतनमें कटौती स्वीकृत कर लेंगे, उनमें एक ऐसा भी था जिसने ऐसा करनेसे एकदम इनकार कर दिया; और सरकार, दृढ़ रहनके स्थान पर, इस व्यक्तिकी अपने साथियोंके साथ इस सम्मिलित बोझको उठानेमें भाग लेनेकी अनिच्छाके सामने झुक गई। इतना ही नहीं, उसके साथ यहाँतक रियायत की कि उसके वेतनमें अच्छी-खासी वृद्धि कर दी; और इस उदारताके लिए बहाना यह पेश किया कि इस आदमीने एक ऐसे आयोजनमें, जिसका इस कृपापात्रके खास विभागसे संलग्न कर्तव्योंसे कोई वास्ता नहीं था, उल्लेखनीय सेवा प्रदान की थी।

यदि डर्बन नगर-परिषद पहले उन विभागीय अध्यक्षोंके, जो वतनी और भारतीय कर्म- चारियोंकी कटौती करानेके लिए तैयार थे, ऊँचे वेतनोंमें समुचित कमी करके अपने व्ययमें बचत करती, तो ३,००० पौंड प्रतिवर्षकी जो तुच्छ राशि उन्होंने अपने निर्धनतम कर्मचारियोंपर बोझ लाद कर बचाई है उसकी पूर्ति सुगमतासे हो जाती। उस अवस्थामें अधिकसे-अधिक बुरा यह होता कि अब जिस कठिनाईका सामना बहुतोंको करना पड़ेगा उसका सामना केवल थोड़ेसे व्यक्तियोंको करना पड़ता। परन्तु यह तो वही पुरानी कहानी है : “ जिसके पास है, उसीको दिया जायेगा, और उसके पास और बहुतायत हो जायेगी; परन्तु जिसके पास नहीं है उससे वह भी ले लिया जायेगा जो उसके पास है।"

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २-१२-१९०५