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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

परवानेकी रकम देकर जहाँ चाहें वहाँ व्यापार कर सकते थे। उस समय ब्रिटिश सरकारको लम्बी बांह इतनी सशक्त थी कि वह हमारी रक्षा कर सकती थी; और युद्ध शुरू होनेके ऐन मौके तक, उस समयकी सरकारके लगातार यह धमकी देते रहनेपर भी कि ब्रिटिश भारतीय व्यापारियों- पर मुकदमा चलाया जायेगा, कोई कार्रवाई नहीं की गई थी। यह ठीक है कि अब सर्वोच्च न्यायालयके निर्णयके कारण भारतीय व्यापारपर कोई पाबन्दियाँ नहीं हैं, परन्तु ऐसा सरकारकी कार्रवाइयोंके बावजूद हो रहा है। सरकार अन्तिम क्षणतक कोई सहायता करनेसे इनकार करती रही और 'बाजार सूचना' के नामसे एक विज्ञप्ति प्रकाशित की गई, जिसमें कहा गया था कि एक नियत दिनके बाद जिस किसी भारतीयके पास युद्ध छिड़नेके समय बस्तियोंके बाहर व्यापार करनेका परवाना नहीं रहा होगा, उससे बस्तियों में चले जानेकी ही नहीं, बल्कि वहीं व्यापार भी करनेकी अपेक्षा रखी जायेगी। यह विज्ञप्ति प्रकाशित होनेके बाद प्राय: प्रत्येक नगरमें बस्तियाँ कायम कर दी गई, और जब सरकारसे न्याय पानेका एक-एक प्रयत्न निष्फल हो गया तब, आखिरी सहारेके तौरपर, इस प्रश्नको अदालतमें परख देखनेका निश्चय किया गया। तब सरकारका सम्पूर्ण तन्त्र हमारे खिलाफ खड़ा कर दिया गया। युद्धके पहले भी ऐसा ही एक मुकदमा लड़ा गया था और तब ब्रिटिश सरकारने कानूनका अर्थ लगवानेमें भारतीयोंकी सहायता की थी। उसका फैसला वर्तमान सर्वोच्च न्यायालयसे अब प्राप्त हुआ है । ब्रिटिश शासनकी स्थापनाके पश्चात् ये सब शक्तियाँ हमारे विरुद्ध हो गई। यह भाग्यकी क्रूर विडम्बना है, और इसे छिपानेका कुछ लाभ नहीं कि हमने इसे बहुत महसूस किया है। और मैं कह दूं कि, जैसा कि अब प्रकट हुआ है, ऐसा उस समयके महान्यायवादीके सरकारको यह बतला देनेपर भी हुआ कि वह कानूनका जो अर्थ लगाना चाह रही है वह ठीक नहीं है, यदि यह मामला सर्वोच्च न्यायालयमें गया तो इसका निर्णय ब्रिटिश भारतीयोंके ही पक्षमें होगा। इसलिए यदि ब्रिटिश भारतीयोंको बस्तियोंमें नहीं भेजा गया और वे जहाँ चाहें वहीं उन्हें व्यापार करने और रहने दिया गया है तो, जैसा कि मैंने कहा है, यह सरकारके इरादोंके बावजूद हो रहा है । जहाँतक भारतीयोंका सम्बन्ध है, १८८५ के कानून ३ का अर्थ, प्रत्येक मामले में, कठोरतापूर्वक हमारे विरुद्ध लगाया गया है और इस कानूनमें हमारे अनुकूल जो गुंजाइश रह गई है उसका लाभ भी हमें नहीं होने दिया गया। उदाहरणार्थ, जो “गलियाँ, मुहल्ले या बस्तियाँ सरकार द्वारा पृथक् किये जायें," उनमें भारतीयोंको जमीनका मालिक होनेकी मनाही नहीं की गई। परन्तु सरकार दृढ़तापूर्वक “गलियों और मुहल्लों" शब्दोंपर विचार करनेसे इनकार करती और "बस्तियों" शब्दको पकड़कर बैठी रही है; और ये बस्तियाँ भी मीलोंके फासलेपर कायम की गई हैं। हम बहुतेरा अनुरोध करते रहे हैं कि सरकारको गलियों और मुहल्लोंमें भी हमें जमीनका मालिक बननेका हक देनेका अधिकार है, और उसे उस अधिकारका प्रयोग हमारे पक्षमें करना चाहिए; परन्तु हमारा सारा अनुरोध व्यर्थ हुआ। जो जमीन जोहानिसबर्ग, होडेलबर्ग, प्रिटोरिया और पॉचेफस्ट्रम आदिमें धार्मिक प्रयोजनोंके काम आती रही है उसे भी सरकारने न्यासियोंके नाम नहीं होने दिया, यद्यपि स्वास्थ्य-रक्षाकी दृष्टिसे मस्जिदोंके स्थानोंको सब प्रकार स्वच्छ रखा जाता है। इसलिए हमारा निवेदन है कि इस समय, जबकि नये कानून विचाराधीन है, हमें कुछ सुविधाएँ दे दी जायें।

वर्गीय कानून

सन् १८८५ के कानून ३ के स्थानपर जो कानून बनाया जानेवाला है उसके सम्बन्धमें सर आर्थर लाली द्वारा तैयार किये गये खरीतेके कारण हमें बहुत अधिक कष्ट हुआ है। उसमें

१. यहाँ मूल अंग्रेजीमें कुछ भूल मालूम होती है। शायद इस अर्थकी शब्दावली रही होगी : “ यह सरकारके अच्छे इरादोंके कारण नहीं, बल्कि उसके विरोधी इरादोंके बावजूद हो रहा है।"