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शिष्टमण्डल : लोंडे सेल्बोर्नकी सेवामें

मैं परमश्रेष्ठको जो वक्तव्य दूंगा उसकी चर्चा करनेसे पहले मुझे ऐसी दो बातोंका जिक्र कर देनेके लिए कहा गया है, जो आपके हालके ट्रान्सवालके दौरेमें हुई थीं। बताया जाता है कि परमश्रेष्ठने पॉचेफस्ट्रममें कहा था कि “जबतक कि अगले वर्ष प्रातिनिधिक विधानसभा इस प्रश्नपर विचार नहीं कर लेगी तबतक किसी ऐसे ब्रिटिश भारतीयको उपनिवेशमें नहीं आने दिया जायेगा जो शरणार्थी न होगा।" यदि यह समाचार सत्य हो तो यह भारतीय समाजके निहित अधिकारोंके सम्बन्धमें भारी अन्याय होगा। मुझे आशा है कि मैं आज इसकी सत्यता प्रतिपादित कर सकूँगा। कहा जाता है कि एमलोमें परमश्रेष्ठने "कुली दूकानदार" शब्दोंका प्रयोग किया था। ये शब्द इस उपनिवेशके ब्रिटिश भारतीयोंको बहुत बुरे लगे हैं। परन्तु ब्रिटिश भारतीय संघने उन्हें आश्वासन दिया है कि सम्भवतः परमश्रेष्ठने इन शब्दोंका प्रयोग नहीं किया होगा; अथवा यदि किया भी होगा तो परमश्रेष्ठ जानबूझकर ब्रिटिश भारतीय दूकानदारोंको बुरी लगनेवाली बात नहीं कह सकते। नेटालमें "कुली" शब्दके प्रयोगसे बड़ा अनर्थ हो चुका है। एक बार तो बात इतनी बढ़ गई थी कि उस समयके न्यायाधीश सर वाल्टर रैगको बीचमें पड़कर इस शब्दका प्रयोग गिरमिटिया भारतीयोंकी चर्चाके अतिरिक्त, अन्य किसी भी प्रसंगमें रोक देना पड़ा था; क्योंकि यह शब्द न्यायालय तक पहुंचा दिया गया था। परमश्रेष्ठ जानते ही होंगे, इस शब्दका अर्थ है- मजदूर "बोझ ढोनेवाला"। इसलिए, व्यापारियोंके संबंधमें इसका प्रयोग न केवल बुरा लगता है, बल्कि ये दोनों शब्द परस्पर-विरोधी भी हैं।

शान्ति-रक्षा अध्यादेश

अब मैं उस वक्तव्यपर आता हूँ जिसे ब्रिटिश भारतीय संघ परमश्रेष्ठकी सेवामें उपस्थित कर रहा है। मैं पहले शान्ति-रक्षा अध्यादेशको लेता हूँ। ट्रान्सवालके ब्रिटिश शासनाधीन क्षेत्रोंका अंग बननेके तुरन्त पश्चात् उन सेवाओंकी चर्चा हर जबानपर थी, जो कि सर जॉर्ज व्हाइटके साथ आये हुए डोली-वाहकों और भारतीय आहत-सहायक दलने नेटालमें की थी। सर जॉर्ज ह्वाइटने प्रभुसिंहकी प्रशंसा शानदार शब्दोंमें की थी। वह एक वृक्षपर चढ़कर बैठा रहता था और जब-जब अम्बलवाना पहाडीपर बोअर तोप चलती थी तब-तब बिना चूके घंटा बजाकर लोगोंको चेतावनी दे देता था। जनरल बुलरने आहत-सहायक दलकी प्रशंसामें जो खरीते भेजे थे वे जब प्रकाशित हुए उस समय शासन उन सैनिक शासकोंके हाथमें ही था जो कि भारतीयोंको जानते थे। इस कारण, शरणार्थियोंका जो पहला जत्था बन्दरगाहोंपर पड़ा प्रतीक्षा कर रहा था उसे देशके भीतर आनेमें कोई कठिनाई नहीं हुई; परन्तु शहरी जनता डर गई और उसने शरणार्थियों तक के आनेपर पाबन्दी लगानेकी पुकार मचा दी। परिणाम यह हुआ कि देशमें स्थान-स्थानपर एशियाई दफ्तर खुल गये, और भारतीय लोगोंको तबसे आजतक चैन नहीं मिला। जो प्रत्येक अर्थमें विदेशी थे उन्हें तो साधारणतया बन्दरगाहोंपर, प्रार्थनापत्र देते ही, जहाँ-का-तहाँ अनुमतिपत्र मिल जाता था; परन्तु भारतीयोंको शरणार्थी होनेपर भी एशियाइयोंके निरीक्षकको लिखना पड़ता था, जिसे प्रार्थनापत्रोंको औपनिवेशिक कार्यालय भेजना पड़ता था, और तब जाकर परवाने जारी होते थे। इस कार्रवाईमें समय बहुत लग जाता था--दो से छः महीने और कभी-कभी तो एक वर्ष या इससे भी अधिक तक समय निकल जाता था। तिस- पर औपनिवेशिक कार्यालयने यह नियम कर दिया था कि ब्रिटिश भारतीय शरणार्थियोंको

१. सर रेडवर्स हेनरी बुलरके कथनानुसार, बोअर युद्धके समय, स्पियन कॉपकी हारके बाद, भारतीय आहत-सहायक दलके स्वयंसेवकोंने खतरा उठानेके लिए बाध्य न होनेपर भी गोलाबारीकी सीमाके अन्दर और गोलोंकी सीधमें काम किया था। देखिए खण्ड ३, पृष्ठ २३८ ।