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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

दृष्टिसे श्री स्मिथकी बात ठीक है, परन्तु प्रवासी-प्रतिबन्धक कानून जिनपर लागू होता है उन सबके प्रति उचित व्यवहारके लिए जिम्मेवार प्रमुख पदाधिकारीको हैसियतसे, हमारा खयाल है कि, उनके लिए उन कठिनाइयोंको इस प्रकार टाल देना सम्भव नहीं जोकि असंदिग्ध रूपसे इस कानूनपर अमल करनेके कारण खड़ी हो जाती है। यदि श्री स्मिथ द्वारा पेश की गई युक्ति ठीक होती तो वे दूसरे भागोंसे सम्बन्धित शिकायतोंकी जिम्मेवारी लेनेसे भी इनकार कर देते; क्योंकि कानूनकी लीकके अनुसार, जिन यात्रियोंको जहाजी कम्पनी मालखानेमें ठूस दे, उनको उचित भोजन मिलता है या नहीं अथवा किनारेके लोगोंसे उनकी बातचीत हो सकती है या नहीं, यह देखना उनका काम नहीं है, क्योंकि जहाज सम्बन्धी सब मामलोंका नियन्त्रण जहाजके मालिक करते हैं। परन्तु श्री स्मिथने ऐसी लचर दलील अपनाना ठीक नहीं समझा। यात्रियोंकी सब शिकायतोंको एक ही मानकर चलना उचित है; इसके अतिरिक्त उनपर विचार हृदयहीनतासे नहीं, बल्कि सहृदयता और सहानुभूतिसे करना चाहिए। श्री स्मिथमें हमने प्रायः सदा ही इस भावनाको विद्यमान पाया है। इसलिए उनका पत्र देखकर हमको धक्का लगा। उसमें हमें उनकी सहृदयता दिखलाई नहीं पड़ी, प्रत्युत उसके स्थानपर सरकारी विभागके ऐसे किसी हिसाबी-किताबी अधिकारीकी हृदयहीनताके दर्शन हुए जो लोगोंके कैसे भी कष्टोंको देखकर विचलित नहीं होता। कानून कुछ कहे या न कहे, श्री स्मिथकी प्रकृतिके अधिकारीसे तो हम अति उदार व्यवहारको आशा करते हैं। इसलिए यह माननेके पश्चात् कि शिकायतोंकी सचाई सिद्ध हो चुकी है, प्रवासी विभागके लिए क्या यह सम्भव नहीं है कि वह जहाजी कम्पनियोंके साथ ऐसा समझौता कर ले (और अबसे पहले, कानूनकी लीकके अनुसार अनावश्यक होनेपर भी, ऐसे समझौते किये जा चुके हैं) जिससे यात्रियोंकी कठिनाइयोंका सर्वथा अन्त न हो तो भी वे कुछ कम तो हो ही जायें? आखिर जो यात्री जहाजकी तलीमें रखे गये थे वे केवल संदिग्ध ही तो थे; उनमें से बहुतोंको शायद इस उपनिवेशमें उतर सकनेका अधिकार भी था। उनमें से कंइयोंको इस उपनिवेशमें से सुरक्षित गुजरनेका अधिकार भी था, और इसलिए प्रवासी विभागका उनके साथ इतना सम्बन्ध तो था ही कि वह, उनके मामलोंकी जाँच हो जाने तक, उनके साथ उचित व्यवहार होनेका ध्यान रखता। इन यात्रियोंको निगरानीमें रखनेकी कार्रवाई यदि भिन्न प्रकारसे की जाती, तो कोई असाधारण बात न हो जाती। इसके अतिरिक्त जब उन्होंने किनारेपर जानेके पास माँगे तब उन्हें इनकार क्यों कर दिया गया, और उन्हें वकीलोंकी सहायता क्यों लेनी पड़ी? निस्सन्देह, हम मानते हैं कि, कानूनपर नरमीसे अमल किया जाता तो शायद खर्च कुछ अधिक होता, धीरज अधिक रखना पड़ता और मूल्यवान समय भी नष्ट होता; परन्तु इससे यात्रियोंको जो सुख मिलता उसकी तुलनामें यह सारा व्यय बहुत न होता।

श्री स्मिथके पत्रमें एक गौण प्रश्न भी उठाया गया है। उसपर तुरन्त ध्यान देनेकी आवश्यकता है। जाहिर है कि नीचे के अधिकारियोंको विभागकी ओरसे कुछ हिदायतें दी गई हैं। परन्तु जनताको उनकी कोई जानकारी नहीं होती। जनतासे उनका निकट सम्बन्ध होता है, इसलिए यदि जनताको उनसे परिचित करा दिया जाये तो उससे कानूनका पालन होनेमें सहायता मिलेगी।

श्री स्मिथके पत्रके अन्तिम अनुच्छेदमें लिखा है कि प्रवासी और पुलिस विभागोंके अधिकारी भी कानूनके उतने ही पाबन्द हैं जितने कि और कोई। उसके सम्बन्धमें यह स्पष्ट है कि औसत गरीब भारतीय प्रवासीसे यह आशा शायद ही की जा सकती है कि वह ऐसे मामलोंको अदालतमें ले जायेगा। मुद्दा यह है कि किसीका तो कर्त्तव्य होना चाहिए कि वह अपमान और