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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यह साबित करने में अनेक बाधाएँ आती हैं कि वह व्यक्ति केपका निवासी है। ऐसे व्यक्तिको तो, यों कहना चाहिए कि, पास मिलता ही नहीं है।

इस सम्बन्धमें ब्रिटिश भारतीय समितिको (ब्रिटिश इंडियन लीग) आवश्यक कार्रवाई करनी चाहिए, नहीं तो केपकी सख्ती दिनोंदिन बढ़ती जायेगी। केपमें मोर्चा लेनेकी कतिपय सुविधाएँ हैं। वैसी सुविधाएँ अन्यत्र नहीं हैं। और उन सुविधाओंका ब्रिटिश भारतीय समिति लाभ उठायेगी, ऐसा हमें विश्वास है।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १८-११-१९०५

१५६. माउंटस्टुअर्ट एलफिन्स्टन

एलफिन्स्टन परिवार स्कॉटलैंडमें सुप्रसिद्ध है। अठारहवीं शताब्दीके अन्तमें उस परिवारका एक सदस्य माउंटस्टुअर्ट एलफिन्स्टन, सोलह वर्षकी आयुमें ईस्ट इंडिया कम्पनीकी नौकरीमें कलकत्ते आया। भारतमें समय-समयपर उपद्रव होते ही रहते हैं। वैसा ही १७९६ में भी हुआ। अवधका पदच्युत नवाब वजीरअली बनारसमें नजरबन्द था। उसने बनारसके रेजिडेंटके स्थानपर हमला किया। बनारसके अंग्रेज न्यायाधीशने और कुमक पहुँचने तक भालेसे अपना बचाव किया। एलफिन्स्टन उस समय वहाँ मौजूद था। उसने भी अपना बचाव बहादुरीसे किया। सन् १८०० में' पूनाकी ओर उपद्रव हुआ। एलफिन्स्टनको वहाँ नौकरी मिली। इस बीच उसने भाषा-ज्ञान अच्छा प्राप्त कर लिया था। और लड़ाईमें भी शौर्य बताकर उसने जनरल वेलेसलीको प्रसन्न कर लिया था। इसके बाद उसको नागपुरके रेजिडेंटकी जगह मिली। यहाँ उसने अपना ज्ञान बढ़ाया। १८०९ में उसे काबुलके अमीरके पास भेजा गया था। उन्हीं दिनोंसे डरके कारण अमीरकी खुशामद करनेका सिलसिला चलता आ रहा है। उधरसे, अर्थात् काबुलके रास्तेसे, भारतपर आक्रमण किया जायेगा, यह भूत तबसे ही सवार है। और इस बेबुनियाद भयसे बचनेके लिए अंग्रेज सरकारने पानीके समान पैसा बहाया है। इसी डरके कारण अमीरके साथ करार करनेके लिए एलफिन्स्टनको भेजा गया था। परन्तु एलफिन्स्टनको खाली हाथ लौट आना पड़ा। उसके स्थानपर यदि और कोई व्यक्ति होता तो उसे जो काम सौंपा नहीं गया, उसमें हाथ न डालता; और उसमें उसका कोई दोष भी नहीं माना जाता। अक्सर जो काम अपने वेतनपर निगाह न रखकर शौकके कारण किया जाता है वह सिर्फ वेतनवाले कामके मुकाबले ज्यादा अच्छा होता है। एलफिन्स्टनकी स्थिति ऐसी ही थी। काबुलके अमीरको मात देनेकी सत्ता उसके हाथमें नहीं थी तो क्या हुआ? अफगानिस्तान में अपना समय और ढंगसे व्यतीत करनेका साधन उसके ? पास मौजूद था। उसने वहाँके लोगों और वहाँकी जगहोंके बारेमें यथावश्यक ज्ञान प्राप्त कर लिया। और इस ज्ञानका लाभ उसने अंग्रेज जनताको दिया। यद्यपि वह अफगानिस्तानसे असफल होकर वापस आया, फिर भी उसकी प्रतिष्ठामें तो वृद्धि ही हुई। १८११ में उसको पूनाके रेजिडेंटकी जगह मिली। इस समय पिडारी लोग गरीबोंको बहुत सताते थे। उधर, सिंधिया,

१. मूल गुजराती में १८ नी साल' है जिसका अर्थ है, वर्ष १८ । यह छपाईकी भूल मालूम होती है।

२. बादमें ड्यूक ऑफ वेलिंगाडन।

३. तब दक्षिणकी रियासतोंमें सेनाके साथ-साथ अनियमित सवार रखनेकी प्रथा चली आती थी, जो युद्ध-कालमें तो शत्रु देश पहुँचनेपर लूट-पाट करते ही थे, शान्ति-कालमें भी खेती-बाड़ीके अलावा अपना लटपाटका काम जारी रखते थे। ये पिंडारी कहलाते थे । केन्द्रीय शक्तियों के हासके साथ ही इनका जोर बढ़ता गया।