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१४२. पत्र: छगनलाल गांधीको

[जोहानिसबर्ग]

नवम्बर ६, १९०५

चि० छगनलाल,

तुम्हारा पत्र मिला। रेवाशंकरके नामका पत्र वापस भेजता हूँ। अभयचन्दसे पत्रोंको वापस लेनेके लिए कहूँगा। वह प्रिटोरिया गया है।

तुमने किचिनके बारेमें लिखा सो ठीक किया है। तुम्हारी दलील गलत नहीं है। साधारणत: उन्हें जो सुविधाएं दी गई हैं, वे आवश्यकतासे अधिक है। उन्हें जो रकम दी जा रही है वह उनकी निपुणताके लिए नहीं, बल्कि मेरी भूलके कारण दी जा रही है। और मेरी भूलको सुधारनेका कोई दूसरा रास्ता न था। मैंने उन्हें जानेकी छूट दे दी थी। परन्तु वे कहने लगे कि मुझसे अब कहीं कोई काम नहीं हो सकता। जोहानिसबर्गमें मैं फिरसे काम शुरू नहीं कर सकता। उनका अपना बड़ा कारोबार था, उसे उन्होंने बन्द कर दिया, इसमें जरा भी शक नहीं। ऐसी परिस्थितिमें, मुझे लगा, मैं उन्हें एकदम बरखास्त कर दूं, यह हो ही नहीं सकता। इसलिए सबसे अच्छा रास्ता यह दीख पड़ा कि उन्हें वेतन दिया जाये और वह केवल उनके खर्च-भरके लिए। फिर भी उनको और मुझे एक माहकी सूचनापर इस व्यवस्थाको भंग करनेकी स्वतंत्रता है। इसलिए मान लो कि प्रेसकी हालत बिगड़ जाये और आमदनी बिलकुल न हो तो मैं एक माहकी पूर्व- सूचना देकर उन्हें हटा सकता हूँ। प्रेसकी हालत अच्छी हो तो भी उन्हें १० पौंडसे अधिक देनेकी न तो बात है और न उसकी जरूरत ही है। इसलिए वे हमेशा इतना ही वेतन लिया करेंगे, ऐसा मान बैठनेका कोई कारण नहीं है। पोलकके लौटनेपर उनकी और इनकी नहीं बनेगी, यह भी हमें नहीं मानना चाहिए। यदि नहीं बनी तो इन्हें जाना पड़ेगा। पोलकको वहाँ आनेमें अभी कमसे-कम ढाई वर्ष लगेंगे। इसलिए इतने दूरकी हम आज चिन्ता न करें। तबतक मुझे लगता है कि हमारी स्थितिमें बहुत परिवर्तन होंगे। किचिनको घर और जमीन दिये बिना कोई चारा न था। उनका मन फीनिक्समें है-वहाँका जीवन उन्हें निःसन्देह पसन्द है। उनके सम्बन्धमें तुमको अगर कुछ भी करनेकी जरूरत आ पड़े तो जरा भी संकोच न करना। आदमीके अच्छे गुणोंका मनन करना है, उसके दोषोंका खयाल हम नहीं रख सकते । अगर हमारे असुविधाएँ या संकट भोगनेसे दूसरे सुखी रहें, दूसरोंका कल्याण हो, तो हमें सन्तोष मानना है। दो एकड़ जमीन तो जिसे चाहिए उसे-- -जैसे तुमको तथा वेस्ट, बीन और आनन्दलालको देनेमें जरा भी दिक्कत नहीं है। मुझे लगता है, यह मैंने पहले ही कह दिया है। पोलकने भी दो एकड़ जमीन मांगी है। मैं मानता हूँ कि यदि किचिन रह जायेंगे तो उनका स्वभाव बदल जायेगा और वे अच्छा काम करेंगे। यदि उनके स्वभावमें रद्दोबदल न हुआ तो वे खुद ही हट जायेंगे। और भी खुलासेकी जरूरत हो तो माँगना। हमेशा बेधड़क होकर मुझे लिखना।

चिरंजीव गोकुलदास स्वभावका अच्छा है। परन्तु देशके संस्कारके कारण उसमें तेरा-मेरा बहुत आ गया है। तुम्हारे प्रति उसकी दृष्टि निर्मल नहीं है। मैंने उसे बहुत समझाया है, परन्तु मैं देखता हूँ कि जवानीके नशेमें उसके दिलमें यह खयाल घर कर गया है कि “मामा पागल हैं"। उसका धन कमानेकी ओर अधिक ध्यान है। उसकी वृत्ति निर्मल बने, इस दिशामें हमें अधिक ध्यान देना है। तुम उसे सँभालना और धीरे-धीरे मोड़ना। मेरा ख्याल है कि वह परिश्रम