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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तारीफ करेगी। ऐसा करनेपर भविष्यमें अगर बलवा उठा भी तो क्या हुआ? परन्तु आगे चलकर हमारे लिए कुछ खतरा है, ऐसे ओछे अन्देशेको लेकर हम अपनी प्रजापर सितम ढायेंगे तो हमपर जो हमले हों, उनके हम लायक ही माने जायेंगे। और ऐसी दशामें जब हम पछाड़े जायेंगे तब जगत हमें धिक्कारेगा, हमपर थूकेगा और हमें गालियाँ देगा।

ऐसी उमदा बातें जवान मेटकाफ़ने प्रजाके दुःखोंके लिए अपने दिलमें दर्द रखकर लिखी हैं। मेटकाफ़को निज़ामके रेजिडेंटकी जगह भी मिली थी। निजामकी सरकारके पास इस समय पैसेकी बड़ी कमी थी। कुछ धूर्त परन्तु वसीलेदार अंग्रेजोंने बहुत पैसा व्याजपर दे रखा था। इससे मेटकाफ़के दिलको बड़ी चोट पहुँची। उन्होंने गवर्नर-जनरलकी परवाह न कर अपना फर्ज अदा किया और धूतोंको हटा दिया। १८२७ में मेटकाफ़ कलकत्तेकी कौंसिलके सदस्य बने। इस समय नेक लॉर्ड विलियम बेंटिक वाइसराय थे। लॉर्ड बेंटिंकको अपना स्वास्थ्य खराब होनेके कारण एकाएक विलायत जाना पड़ा, इसलिए मेटकाफ़को स्थानापन्न गवर्नर-जनरलकी जगह मिली। मेटकाफ़ने सबसे बड़ा काम इस समय किया। उन्होंने भारतके समाचारपत्रोंको स्वतन्त्र करनेका कानून बनाया। इसके कारण उनके वरिष्ठ अधिकारी उनसे नाराज हो गये, परन्तु इस बातकी उन्होंने परवाह नहीं की। बड़े-बड़े अंग्रेजोंने उनका विरोध किया। उन्होंने उनको इस तरह उत्तर दिया:

यदि मेरा विरोध करनेवाले यह दलील देते हों कि ज्ञानका प्रचार होनेपर हिन्दुस्तानमें हमारे राज्यको धक्का पहुँचेगा, तो मैं कहता हूँ कि चाहे कैसा ही परिणाम क्यों न हो, लोगोंको ज्ञान देना हमारा कर्तव्य है। अगर लोगोंको अनपढ़ रखनेसे अंग्रेजी राज्य टिक सकता हो, तो हमारा राज्य इस देशपर एक कलंक है और उसे खत्म हो जाना चाहिए। मुझे तो लगता है कि यदि ये लोग अनपढ़ रहेंगे तो हमारे लिए अधिक डरकी बात होगी। मैं आशा करता हूँ कि उनको ज्ञान मिलनेसे उनके वहम दूर होंगे, अंग्रेजी राज्यसे होनेवाले लाभको वे समझेंगे, हमारी आपसको सद्भावना बढ़ेगी और उनके और हमारे बीच जो अलगाव और असहयोग है वह दूर होगा। फिर भी हिन्दुस्तानके भविष्यके बारेमें खुदाई फरमान क्या है, यह हम नहीं जान सकते। हमारा कर्तव्य केवल इतना ही है कि हमारे हाथमें जो काम आया है, वह हमें लोगोंको भलाईके वास्ते कर देना चाहिए।

मेटकाफ़ इसके बाद कैनेडाके गवर्नर-जनरल नियुक्त हुए। इस समय वे सख्त बीमार हो गये। उन्होंने अपनी बीमारीकी परवाह नहीं की और अपना कर्त्तव्य समझकर वे अन्त तक काम करते रहे। वे स्वयं बड़े धार्मिक व्यक्ति थे। सन् १८४० में अपनी रानीकी नौकरी वफा- दारीके साथ बजाते हुए और लोगोंके प्रीति-पात्र बनकर वे परलोक सिधारे।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ४-११-१९०५