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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इसके बाद हमारा सहयोगी कहता है कि यह प्रश्न गोरे या गेहुँए रंगवालोंका नहीं है। हमारे कथनको गलत बतलाया गया है। दुर्भाग्यवश, हमने उसके जिस कथनको ऊपर उद्धृत किया है उसके लिए हमें भी उसी शब्दका प्रयोग करना पड़ रहा है। दादा उस्मान परवाना पाने या व्यापार करनेके अधिकारी हैं या नहीं, यह प्रश्न यहाँ विचारणीय समस्यासे भिन्न है, और दोनोंमें अन्तर न होते हुए भी हमारे सह्योगीने उनमें अन्तर दिखला दिया है। सचाई यह है कि निकायके फैसलेके कारण श्री दादा उस्मान बरबाद हुए जा रहे हैं, और हमारे कथनमें जोर इसी बातपर दिया गया था। कानूनी अर्थोंमें प्रार्थीके कोई "निहित अधिकार" नहीं है, इस बातसे तो हमारी इस युक्तिका ही बल प्रकट होता है कि कभी-कभी ब्रिटिश संविधान इतना कमजोर पड़ जाता है कि वह अन्यायको सहारा देकर उसका समर्थन करने लगता है। इस मामले में ऐसा ही हुआ है । जो आदमी कई वर्षों तक व्यापार करता रहा हो, उसके व्यापार करनेके अधिकारको बिना कोई मुआवजा दिये छीन लेना, किसी साधारण आदमीको दृष्टिमें बहुत-कुछ डकैतीके समान होगा। परन्तु यही काम जब सरकारी नियमकी आड़में किया जाता है तब उसे “कानून' का भ्रान्त नाम दे दिया जाता है। हमारा सहयोगी जब यह कहता है कि प्रश्न यह है कि दादा उस्मानको किसी बस्तीमें चला जाना चाहिए या नहीं, तब हम भी उसका समर्थन करते हैं। हम अपने सहयोगीको बतला दें कि बस्तियोंसे सम्बद्ध १८८५ के कानून ३ की व्याख्या ट्रान्सवालके सर्वोच्च न्यायालयने यह की है कि वह ब्रिटिश भारतीयोंको बस्तियोंमें व्यापार करनेके लिए विवश नहीं करता। ट्रान्सवालमें किसी भी भारतीयको जहाँ वह चाहे वहाँ व्यापार करनेका अधिकार है, और वह रुपया देकर परवानेकी माँग कर सकता है । फ्राइहीडने ट्रान्सवालके कानून अपना लिये है, जिनमें भारतीयों-सम्बन्धी कानून भी शामिल हैं, और उसे उनके अनुसार चलना होगा। इसलिए यदि नेटालका विक्रेता-परवाना अधिनियम रुकावट न डालता तो आज श्री दादा उस्मान फ्राइहीडमें व्यापार करते होते। इसी विक्रेता-परवाना अधिनियमको उनके विरुद्ध लागू कर दिया गया है, और इसीके बलपर उनके प्रतिस्पर्धी व्यापारी, न्यायकी समस्त भावनाओंको ताकपर रखकर, एक गरीब आदमीको बरबाद करने में सफल हो गये हैं, क्योंकि, हम दुहराते हैं, "उसकी खालका रंग गेहुँआ है।" क्या परवाना-अधिकारीने परवाना देनेसे इनकार करते हुए यही दलील नहीं दी है कि मैं फ्राइहीडमें डंडीकी दशाकी पुनरावृत्ति होने देना नहीं चाहता? दूसरे शब्दोंमें, वे फाइहीड नगरमें एशियाई-व्यापारियोंकी संख्या इतनी अधिक होने देना नहीं चाहते जितनी कि डंडी नगरमें हो गई है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ४-११-१९०५