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दादा उस्मानकी अपील

तो, हमारी सम्मतिमें, वे प्रथम व्यक्ति होंगे जो बहिष्कार-आन्दोलनको प्रोत्साहन देंगे; और साथ ही वे उस लोकमतको शान्त करनेका यत्न करेंगे जो कि अब इतना भड़क चुका है। इससे अधिक स्वाभाविक बात और क्या हो सकती है कि लोग अपने देशमें ही उत्पन्न और निर्मित हुई वस्तुओंसे अपना तन ढंकना, पेट भरना और भोगकी अपनी अन्य आवश्यकताएँ पूरी करना पसन्द करें? हम देखते हैं कि इस प्रकारके आन्दोलन अन्य उपनिवेशोंमें इससे भी अधिक व्यापक रूपमें चल रहे हैं। जनतामें इन विचारोंका फैलना न्यायसंगत और शुभ है, और ब्रिटिश ताजके प्रति निष्ठाकी भावनासे नाममात्रको भी असंगत नहीं है। यह उस भविष्यवाणीकी पूर्तिमात्र है जो भारतके विषयमें मैकॉलेने की थी।

परन्तु भारतके शासकोंको यदि यह आन्दोलन युक्तियुक्त दिखलाई नहीं पड़ता तो भार- तीयोंको भी क्यों न दिखाई पड़े? यह सत्य है कि एक हद तक भारतमें ब्रिटिश शासनका प्रवेश आन्तरिक फूटके कारण ही सम्भव हुआ था, परन्तु यह कर्तव्य और अधिकार भी तो ग्रेट ब्रिटेनका ही है कि वह भारतके दो बड़े सम्प्रदायोंमें मेल करा दे और उनके लिए ऐसी विरासत छोड़ जाये जिसके कारण न केवल करोड़ों भारतीय उसके प्रति कृतज्ञ रहें, अपितु सारा संसार निःसंकोच भावसे प्रशंसा करे। इसलिए दोनों संप्रदायोंको चाहिए कि उन्हें जो अवसर मिला है उसका वे पूरा लाभ उठायें और अपने सामूहिक हितके लिए आपसी मतभेद तथा ईर्ष्या-द्वेष भुला दें। कोई तीसरा पक्ष उनके झगड़ेमें पड़कर दोनोंसे अपना फायदा कर ले जाये, इससे कहीं अच्छा तो यह है कि दोनों भाई एक-दूसरेके हाथों नुकसान उठा लें। जो भी इन पंक्तियोंको पड़े, उन सबसे हम अनुरोध करेंगे कि वे हमारे साथ मिलकर प्रार्थना करें कि बंगालका वर्तमान आन्दोलन बलशाली होता चला जाये, क्योंकि उसमें विभिन्न जातियों में एकता करा सकनेका अंकुर विद्यमान है; और ढाका तथा अन्य स्थानोंके लोगोंको, वे चाहे हिन्दू हो चाहे मुसलमान, यह सुबुद्धि प्राप्त हो कि वे ऐसा कोई भी काम न करेंगे जिससे भारतकी जनताका भविष्य उज्ज्वल होनेकी सम्भावना नष्ट हो जाये।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ४-११-१९०५


१४०. दादा उस्मानकी अपील

इस अपीलके' विषयमें हमारे कथनको उद्धृत करनेके बाद 'फाइहीड हेराल्ड ने कहा है कि प्रश्न यह नहीं है कि,

दादा उस्मानको परवाना मिलना चाहिए या नहीं, बल्कि यह है कि उन्हें नगरके किसी भी भागमें व्यापार करने का अधिकार है या नहीं। यद्यपि दादा उस्मानको कुछ बरस तक व्यापार करनेका परवाना प्राप्त था, फिर भी इतने मात्रसे सदाके लिए नगरमें रहनेका उनका निहित अधिकार सिद्ध नहीं होता। १८८६ से पूर्व कुछ भारतीय ट्रान्सवालमें आये थे तब उनको परवाने इस शर्तपर दिये गये थे कि वे केवल उन बस्तियों और स्थानोंमें व्यापार करेंगे जो सरकारने उन्हें बतला दिये है, और अब प्रश्न यह है कि दादा उस्मानको किसी बस्तीमें चला जाना चाहिए या नहीं।

१. देखिये, “परवानेका एक और मामला," पृष्ठ १०८-९ ।