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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जैसी सेवाकी, माधवरावने त्रावणकोरकी वैसी ही सेवा की है। उन्हें वाइसरायको परिषदको सदस्यताके लिए कहा गया था, परन्तु उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया।

कुछ समय बाद इन्दौरके महाराजा तुकोजी राव होलकरने अंग्रेज सरकारसे एक अच्छा प्रशासक देनेकी दरखास्त की। इसपर अंग्रेज सरकारने माधवरावसे पूछा और उन्होंने दो वर्षके लिए वहाँ जाना स्वीकार किया। वहाँका सबसे अधिक उल्लेखनीय कार्य यह था कि उन्होंने " इन्दौर दण्ड-विधान" की रचना की। उन्होंने दो वर्ष तक यह पद सँभाला। इस बीच उन्होंने प्रजाके लिए बहुत अच्छे काम किये और राज्यको समृद्धिशाली बना दिया।

तभी बड़ौदाके मल्हारराव गायकवाड़को राज्य-व्यवस्थाकी खराबीके कारण पदच्युत किया गया और राज्यका काम-काज चलानेके लिए सर माधवरावकी मांग की गई। उन्होंने उसे स्वीकार किया। बड़ौदाकी हालत बड़ी भयानक थी। खून-खराबी, गुंडागिरी और मार-काट जहाँ-तहाँ दिखाई पड़ती थी। लोगोंका संगठन नहीं था। जान-मालकी रक्षाका प्रबंध नहीं था। इसलिए राज्यमें अमन कायम करनेके लिए एक मजबूत व्यक्तिकी आवश्यकता थी। राज्यके राजस्वका इजारा बड़े-बड़े सरदारोंके हाथमें था। साहूकार पुलिसकी सहायतासे लोगोंपर अत्याचार करते थे। फरेबियोंकी राज्यमें भरमार थी। अन्धेरगर्दीका अन्त नहीं था। परन्तु सर टी० माधवरावने इस स्थितिसे भी हार नहीं मानी। उन्होंने बड़ी दक्षतासे राज्यका काम सँभाला। उन्होंने बदमाशोंको राज्यसे निर्वासित कर दिया, सरदारों और साहूकारोंसे इजारे छीन लिये और राज्यके राजस्वको अच्छी बुनियादपर लाकर रख दिया। लगान-वसूलीमें लगे हुए सिपाहियोंको हटाकर दीवानी काममें लगाया। न्यायालयोंमें न्यायकी व्यवस्था की। वाचनालय स्थापित किये। बम्बई और मद्राससे योग्य व्यक्तियोंको बुलाकर कर्मचारी वर्गमें सुधार किया। बड़ौदामें छोटी-छोटी तंग गलियां थीं, उनको जलाकर गिरवा दिया, और उनकी जगह सुन्दर मकान बनवाये, बगीचे लगवाये और अजायबघर बनवाया। इस प्रकार अथक परिश्रम करते हुए वर्षों तक वे एकके बाद एक सुधार करते रहे। १८८२ में ब्रिटिश सरकारने उन्हें राजाका खिताब दिया। महाराजा गायकवाड़ने उन्हें अपनी सेवाओंके लिए तीन लाख रुपय पुरस्कार-स्वरूप भेंट किये। इसके बाद उन्होंने एक साधारण नागरिककी हैसियतसे जीवन बिताया। इस अवधिमें भी वे लोगोंके लिए उपयोगी काम करते रहते थे। उनका शिक्षा विभागकी ओर काफी ध्यान रहता था और वे लड़कियोंकी शिक्षापर विशेष ध्यान देनेके हेतु बहुत समझाया करते थे। उनका पत्र-व्यवहार बिस्मार्कके साथ चलता था। उनकी प्रशासनिक योग्यताकी ख्याति भारतमें ही नहीं, यूरोपमें भी फैली हुई थी। उनके समान प्रशासक भारतमें बिरले ही हुए हैं। १८९१ के अप्रैल मासकी ४ तारीखको भारतका यह रत्न ६२ वर्षकी आयुमें लुप्त हो गया।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, २१-१०-१९०५

१. प्रिन्स ओटो एडवर्ड लियोपोल्ड वॉन बिस्मार्क (१८१५-९८), अपने समयका एक सबसे बड़ा जर्मन राजनीतिज्ञ था, जिसने जर्मन राष्ट्रका निर्माण ही नहीं किया, उसे दुनियाकी सबसे बड़ी ताकत भी बना दिया।