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परवानेका एक और मामला

किया जाता है तो इसका उत्तर होगा ब्रिटिश संविधान ही ऐसा है। जहाँ यह रक्षा करने में बहुधा बलशाली सिद्ध होता है, वहीं प्रायः प्रत्यक्ष अन्यायसे बचा सकनेमें असमर्थ भी होता है। इस बातपर विश्वासतक होना कठिन है कि उस व्यक्तिको, जो बहुत समयतक बाजाब्ता व्यापार करता रहा, उसके आधे दर्जन प्रतिस्पधियोंके कहने मात्रसे, अपना व्यापार जारी रखनेके अधिकारसे वंचित कर दिया गया। ये प्रतिस्पर्धी इतने कायर है कि वे उसका खुली प्रतिस्पर्धामें मुकाबला नहीं कर सकते और इसलिए उसको बदनाम और बरबाद करनेके लिए अपने हाथोंमें अस्थायी रूपसे आये हुए अधिकारोंका प्रयोग करते हैं। वर्तमान मामले में ठीक यही हुआ है। नेटालके विक्रेता-परवाना अधिनियमका जिक्र इन स्तंभोंमें कई बार किया जा चुका है। उसके अंतर्गत छोटे-छोटे दुकानदारों और भारतीय व्यापारियोंको, उन स्थानीय निकायोंकी दया- पर छोड़ दिया गया है जिनके सदस्य बड़े-बड़े व्यापारी हैं। और बड़े व्यापारियोंने इस प्रकार प्राप्त अधिकारोंका प्रयोग निर्दयतापूर्वक करनेमें बिलकुल संकोच नहीं किया है। यह कानून बनाया ही गया था भारतीयोंको कुचलनेके लिए। जब उनका काम तमाम हो जायेगा या वे रास्ता नाप लेंगे तब इसका प्रयोग छोटे गोरे व्यापारियोंके विरुद्ध किया जायेगा। वह संघर्ष अत्यंत विलक्षण होगा। बेचारे गरीब भारतीय तो वैधानिक ढंगसे लड़ते हैं। उस ढंगकी लड़ाईको स्थानिक निकाय तीव्रतम अवहेलनाकी दृष्टिसे देखते हैं, क्योंकि उनके हाथोंमें अकस्मात ही जो अधिकार आ गये हैं, उनके कारण वे मतवाले हो उठे हैं।

दादा उस्मानके मामले में फ्राईहीड निकायने जो कार्रवाई की है उसमें औचित्य रत्ती भर भी नहीं है। उस नगरमें वे एकमात्र भारतीय व्यापारी थे। उनका प्रार्थनापत्र नये परवाने के लिए नहीं था। उनकी दूकान असाधारण रूपसे संतोषजनक अवस्थामें रखी जाती थी। परन्तु निकायके गोरे सदस्योंने उनकी दूकान केवल इस कारण कोई मुआवजा दिये बिना बन्द कर दी कि उनकी चमड़ीका रंग भूरा था। इतना ही नहीं, उन्होंने उनके वकीलका यह प्रार्थना- पत्र भी अस्वीकृत कर दिया कि उनकी दूकान तबतक खुली रहने दी जाये जबतक वे ऊपरके अधिकारियोंसे राहत पानेका यत्न कर रहे हैं। यह मामला निरा फ्राईहीड स्थानिक निकाय बनाम दादा उस्मानका नहीं है। यह मामला गोरी ब्रिटिश प्रजा और गोरे विदेशी बनाम ब्रिटिश भारतीय समाजका है। प्रत्येक भारतीय व्यापारीको यह मामला इसी दृष्टिसे देखना चाहिए और श्री लिटिलटनको भी इसी दृष्टिसे इसपर विचार करना चाहिए।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २१-१०-१९०५


१. देखिये विक्रेता-परवाना अधिनियम', खण्ड ४, पृष्ठ १४७-८ और २९९ ।