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सर हेनरी लोरेंस

जब लॉरेंस नेपालमें राजदूत बना, उस समय उसकी भली पत्नी अपना जीवन भलाईके कामोंमें बिताया करती थी। उन दोनोंने मिलकर अपने धनसे यूरोपीय सैनिकोंके बच्चोंके संवर्धन तथा शिक्षा-दीक्षाके लिए हिमालयकी तराईमें एक विशाल सदन बनवाया। उसके बाद तो ऐसे सदन भारतमें जगह-जगह बनाये गये हैं; और उन सभीको “लॉरेंस सदन" कहा जाता है। सन् १८४६ में सिख-युद्ध हुआ। इसमें लॉरेंसने बड़ी बहादुरी दिखाई। इस समय उसकी पत्नी बीमार थी। उसे युद्धपर जानेका आदेश मिला। आदेशके मिलते ही बीमार स्त्रीको छोड़कर वह चौबीस घंटेके अंदर युद्धमें जानेके लिए तैयार हो गया। युद्ध के बाद शाही राजदूतके रूपमें उसने लाहौरमें बड़ा अच्छा काम किया। इससे उसको 'सर'का खिताब दिया गया। सन् १८४९ में जब पंजाब जोड़ देनेका इरादा हुआ तब लॉर्ड डलहौज़ी जैसे गवर्नर जनरलके साथ अकेले लॉरेंसने टक्कर ली। वह अपनी बातमें सफल नहीं हुआ। फिर भी गवर्नर जनरलको उसपर इतना अधिक विश्वास था कि उसने पंजाबमें मुख्य उत्तरदायित्वका काम उसीको सौंपा। वह सिख लोगोंके बड़े घनिष्ठ सम्पर्कमें आया था। वे लोग उसे बहुत चाहते थे। इसीसे पंजाब शान्त हुआ।

लॉरेंसने सबसे महत्त्वपूर्ण काम १८५७ के विप्लवके समय किया। इस समय तक लॉरेंसका स्वास्थ्य टूट चुका था और उसको छुट्टी मंजूर कर दी गई थी। फिर भी गदर शुरू हो जानेसे वह अपनी छुट्टीका लाभ न लेकर लखनऊ गया। कहा जाता है कि उसकी सूझबूझ और बहादुरीकी बदौलत सैनिक उसे बहुत मानते थे। इसीसे लखनऊमें अंग्रेजोंकी इज्जत बची।

लखनऊके घेरेमें ९२७ यूरोपीय और ७६५ देशी सैनिक थे। लॉरेंस दिन-रात काम करता था और घिरे हुए लोगोंसे भी काम लेता था। जिस कोठरीमें वह बैठकर काम करता था उसीपर गोले जाकर गिरते थे और वह उनकी परवाह नहीं करता था। १८५७ की जुलाईकी दूसरी तारीखको गोलेके एक टुकड़ेसे वह जख्मी हो गया। डॉक्टरोंने उससे कहा कि घाव घातक है और उसका ४८ घंटेसे अधिक जिन्दा रहना संभव नहीं है। इस समय उसको असहनीय कष्ट हो रहा था, फिर भी वह आदेश देता रहा और ४ तारीखको इस प्रार्थनाके साथ उसने अपने प्राण त्याग दिये : “हे परमेश्वर, तू मेरा दिल साफ रख । तू ही महान है। तेरा यह जगत किसी दिन जरूर पाप-रहित होगा। मैं स्वयं बालक हूँ, परन्तु तेरे बलसे बलवान बन सकता हूँ। तू मुझे सदैव नम्रता, न्याय, सुविचार और शान्ति सिखाना। मैं मनुष्योंके विचार नहीं चाहता । तू मेरा न्यायाधीश है और तू मुझे अपने विचार सिखाना, क्योंकि मैं तुझसे डरता हूँ।" वह भारतीयोंसे बहुत प्रेम करता था। विद्रोहके समय जो अत्याचार किये जाते थे वह उनकी बहुत निन्दा करता था और वह मानता था कि प्रत्येक अंग्रेज भारतका न्यासी है। न्यासीके रूपमें अंग्रेजोंका काम भारतको लूटना नहीं, बल्कि लोगोंको समृद्ध बनाना, स्वशासन सिखाना और देशको खुशहाल कर भारतीयोंको सौंप देना है। लॉरेंस जैसे व्यक्ति अंग्रेज जातिमें पैदा हुए हैं, इसीसे वह आगे बढ़ी है।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १४-१०-१९०५