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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अच्छे काममें खर्च करनेका संतोष मान लेते है। चूंकि कोई अच्छा काम करनका अनुभव नहीं होता; इसलिए वे स्वयं उनका कोई सदुपयोग नहीं कर पाते।

यह सब बुद्धिमान डॉक्टर बरना?ने देख लिया था। इससे उन्होंने यह विचार किया : 'मेरा मन तो साफ है। जो लोग मुझपर विश्वास करके मुझे पैसा देंगे वे समझ सकेंगे कि मुझे अपना पेट भी इसके सहारे भरना चाहिए। लेकिन यदि मैं बिना माँ-बापके बालकोंका पालन- पोषण करूँगा तो उनकी अन्तरात्मा दुआ देगी। और लोग भी देख सकेंगे कि मेरा इरादा पैसा बटोरनेका नहीं है।" इस तरह दृढ़ संकल्प होकर ये बहादुर डॉक्टर काममें जुट गये और उन्होंने पहला अनाथाश्रम लन्दनके स्टीवेनी कॉजवेमें खोला। प्रारम्भमें तो सब लोगोंने उसका विरोध किया और कहने लगे कि यह तो धोखा देकर पैसे पैदा करनेका रास्ता निकाला गया है। डॉक्टर बरना? इससे निराश नहीं हुए। उन्होंने अपनेपर श्रद्धा रखनेवाले लोगोंसे चन्दा लेना शुरू किया। धीरे-धीरे बच्चे जमा होने लगे। वे आवारा बननेके बजाय पढ़े-लिखे, मेहनती तथा ईमानदार बने और रोजगारमें लग गये। इस प्रकार जितने भी बच्चे पले उन सभीने डॉक्टर बरनाडोंके आश्रमकी ख्याति बढ़ाई। उन बच्चोंने महसूस किया कि स्वयं डॉक्टर बरना? उनके माता-पिताकी अपेक्षा अधिक हिफाजत करते हैं। डॉक्टरने ऐसे आश्रम बढ़ाये और अन्तमें लन्दनसे छः मीलकी दूरीपर जंगलमें, एक गाँव बसाया। उस गाँवमें अच्छे मकानों और गिरजा-घर आदिका निर्माण किया और वह स्थान इस समय इतना प्रसिद्ध हो गया कि बहुत लोग उसको ऐसी पवित्र भावनासे देखने जाते है मानो तीर्थयात्रा करने जा रहे हों। उसकी ख्याति इतनी बढ़ गई कि संसारके बहुत-से भागोंमें उस प्रकारके आश्रम बनाये गये हैं। इस प्रकार डॉक्टर बरना?ने अपनी जिन्दगीमें ५५,००० बालकोंकी परवरिश की थी। कुछ दुष्ट माँ-बाप इस सुविधाका अनुचित लाभ भी उठाते थे। वे अपने बच्चोंको रातमें मौका देखकर डॉक्टर बरनार्डोके अहाते में डाल जाते थे। डॉक्टर बरना? इससे भी हार नहीं मानते थे। वे उन बच्चोंकी यत्नसे परवरिश करते और जब माँ-बाप अपने बालकोंको वापस मांगने आते तब उनको सौंप देते थे। हर साल इन बच्चोंका मेला लन्दनके विशाल अल्बर्ट हालमें लगता है। हजारों मनुष्य इस मेलेको पैसे देकर देखनेके लिए हर साल आते हैं। डॉक्टरके देहान्तके बाद पता चला है कि उन्होंने अपने जीवनका ७०,००० पौंडका बीमा करवाया था। वसीयतनामेमें वह लिख गये हैं कि यह सारा धन उनके स्थापित किये हुए आश्रमोंके संचालनमें खर्च किया जाये।

डॉक्टर बरना? ऐसे महान पुरुष थे। वे स्वयं धार्मिक और अत्यन्त दयालु थे। बीमा कराना आदि विचार हमारे धार्मिक मतसे अलग पड़ते हैं। फिर भी यह हमें कबूल करना चाहिए कि पश्चिमके उस प्रकारके रिवाजके अनुसार डॉक्टरने जो किया वह सूझ-बूझका काम था।

एक व्यक्ति गरीब होते हुए अपने उत्साह और अपने दया-भावके बलपर कितना काम कर सकता है, इसका डॉक्टर बरनाडोंने इस युगमें सर्वोत्तम उदाहरण उपस्थित किया है।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ७-१०-१९०५