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सात

गांधीजी जानेके लिए तैयार हो गये, किन्तु उन्होंने पहले प्रमुख भारतीयोंसे यह वचन ले लिया कि वे पुनः पंजीयन कराना मंजूर नहीं करेंगे। उनके विचारमें भारतीय समाजके लिए वह समय कसौटीका था। इंग्लैंड जाते समय जहाजपर भी वे संघर्षके बारेमें ही विचार करते रहे और वहाँसे 'इंडियन ओपिनियन' के लिए उन्होंने जो लेख भेजे उनमें से एकमें संघर्षके विधि-निषेधका ब्यौरा दिया।

दक्षिण आफ्रिकाके सामने जो बड़े-बड़े प्रश्न थे उनपर अपना मत स्पष्ट करनेमें गांधीजी कभी नहीं चूके। खदानोंमें काम करनेवाले चीनी मजदूरोंके प्रति कठोर बर्तावकी उन्होंने निस्संकोच भर्त्सना की। जब ट्रान्सवाल और ऑरेंज रिवर कालोनीका नया विधान बननेवाला था तब रंगदार" लोगोंने उस संविधानके अन्तर्गत मताधिकार पानेके लिए प्रार्थनापत्र दिये। गांधीजीने उस आन्दोलनके साथ पूरी सहानुभूति दिखाई।

इस अवधिमें गांधीजीने ट्रान्सवाल और नेटालके प्रमुख समाचारपत्रोंमें अनेक लेख लिखे। 'नेटाल मक्युरी' के आमन्त्रणपर जून १९०६ में उन्होंने भारतीयोंकी मुख्य-मुख्य शिकायतों और उनके निराकरणके उपायोंका संक्षिप्त तथा सुस्पष्ट व्यौरा दिया। 'रैड डेली मेल' को लिखे पत्र में उन्होंने भारतीयोंके लिए पूर्ण नागरिक स्वतन्त्रताकी मांग की। जब पूनिया नामकी एक भारतीय स्त्रीपर इसलिए मुकदमा चलाया गया कि उसके पास अलग अनुमतिपत्र नहीं था तब उन्होंने अखबारों में उसके विरुद्ध लिखकर जबर्दस्त हलचल पैदा कर दी, जिससे सरकारी पक्षका खोखलापन तो जाहिर हुआ ही, वहाँके अखबारोंको वह वक्तव्य भी वापस लेना पड़ा जिसमें दक्षिण आफ्रिकामें रहनेवाली भारतीय स्त्रियोंको लांछित किया गया था।

गांधीजी भारतीयोंके साथ बरती जानेवाली भेद-नीतिके विरुद्ध आन्दोलन चलानेके अतिरिक्त उनका रचनात्मक मार्गदर्शन भी करते रहते थे। जब नेटाल-सरकारने स्थानीय रूपसे वस्तुओंके निर्माणकी सम्भावनाकी जाँचके लिए एक आयोग बिठाया, तब उन्होंने भारतीय व्यापारियोंको उसके सामने गवाही देने के लिए प्रेरित किया। बड़ौदाकी शैक्षणिक प्रगतिके उदाहरण देकर और गोखलेके सुझावोंका समर्थन करके वे भारतीयोंको शिक्षण प्राप्त करनेकी आवश्यकता निरन्तर समझाते रहते थे। दक्षिण आफ्रिकामें भारतीय व्यापार-संघकी स्थापनाके प्रस्तावका भी उन्होंने अनुमोदन किया था।

भारतकी घटनाओंसे भी वे घनिष्ठ सम्पर्क बनाये रहे। भारतकी आवश्यकताएँ सदा उनके ध्यानमें रहती थीं। उन्होंने नमक-कर समाप्त करनेकी माँग की। बंग-भंग आन्दोलनके तीव्र होनेपर उन्होंने संयुक्त विरोध और अंग्रेजी मालके बहिष्कारका आह्वान किया। स्वदेशी आन्दोलनकी प्रगतिपर प्रसन्नता प्रकट की और साम्प्रदायिक एकताकी आवश्यकतापर जोर दिया। उन्होंने 'वन्दे मातरम्' को भारतका राष्ट्र-गीत और देशको एक राष्ट्र बनानेके लिए हिन्दुस्तानीको राष्ट्र-भाषा स्वीकार करनेकी सलाह दी। भारतीय नेतागण भारतमें जो कुछ कर रहे थे उसपर वे ध्यान रखते रहे और कांग्रेसकी अध्यक्षताके लिए उन्होंने श्री गोखलेके निर्वाचनका समर्थन किया। "साम्राज्यका अविभाज्य अंग" होनेके नाते उन्होंने भारतकी आकांक्षाओंपर अधिक गहराईसे सोचनेकी आवश्यकता बताई और न्याय तथा मानवताके नामपर स्वराज्य (होम-रूल) की मांग पेश की।

वे बाहरी दुनियाकी महत्त्वपूर्ण घटनाओंपर भी नजर रखते रहे। निर्वाचनके सिद्धान्तोंपर आधारित नये रूसी विधानको उन्होंने प्रगतिकी दिशामें एक कदम माना। १९०५ की क्रान्तिके विषयमें उन्होंने कहा कि यदि यह क्रान्ति सफल हो गई तो "इस शताब्दीकी सबसे बड़ी विजय