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१०९. भारतके 'पितामह'[१]

भारतसे बदलेमें आये हुए समाचारपत्रोंसे हमें उन सभाओंकी खबर मिली है जो गत ४ सितम्बरको भारतके पितामह श्री दादाभाई नौरोजीका इक्यासीवां जन्मदिन मनानेके लिए देश-भरमें की गई थीं। हमारी नम्र सम्मतिमें, श्री नौरोजीकी भारतके प्रति की गई सेवाएँ उन सेवाओंसे बहुत अधिक है जो इंग्लैंडके "पितामह"[२] ने इंग्लैंडके प्रति की थीं। श्री नौरोजीका काम अग्रणीका काम था। उन्होंने जब वह काम शुरू किया, तब निश्चय ही उनके सहायक बहुत कम थे। वे जिस त्याग और लगनसे अनुकूल और विपरीत—सभी परिस्थितियोंमें भारतके हितके लिए कार्य करते रहे, उसका जोड़ भारतमें कठिनाईसे मिलेगा; और क्या आश्चर्य कि उनको अपने करोड़ों देशवासियोंकी दृष्टिमें सबसे ऊँचा स्थान प्राप्त है! यह बात अत्यन्त करुण और गौरवास्पद है कि अस्सी वर्षसे भी ज्यादा आयुका यह वृद्ध ब्रिटेनके एक निर्वाचन क्षेत्रमें लोगोंको मत देनेके लिए मनाता फिरता है—अपने यश या सम्मानके लिए नहीं, बल्कि भारतकी सेवा और अधिक करनेके लिए। यदि उत्तरी लैम्बेथके निर्वाचक श्री नौरोजीको फिर संसदका सदस्य चुन लेंगे तो इसमें उनका अपना ही असाधारण सम्मान होगा। हम भी भारतके करोड़ों लोगोंकी भाँति श्री नौरोजीके दीर्घायुष्य और स्वास्थ्यके लिए प्रार्थनाएँ करते हैं।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ७-१०-१९०५

११०. सर मंचरजीका अपमान

अभी हालमें कलकत्तामें सर मंचरजी भावनगरीका जो अपमान किया गया, उसे जानकर हमें भारी खेद हुआ है। बंग-भंग[३] के प्रश्नपर उनका मत [लोगोंके] मतसे भिन्न था; इस कारण कॉलेज चौकमें उनका पुतला जलाया गया। सर मंचरजी निश्चय ही अपना स्वतन्त्र मत रख सकते हैं, यद्यपि आजकल स्वतन्त्रताके उस मंदिर--ब्रिटिश लोकसभा- के सदस्योंको अपना वैयक्तिक मत रखने की स्वतन्त्रता क्वचित् दी जाती है। उस सभाका जो सदस्य भारतके हितमें अपने उत्साहका प्रमाण दे चुका है, उसका ऐसा खुला अपमान करना अबुद्धिमत्तापूर्ण—नहीं, मूर्खतापूर्ण है। भले ही सर मंचरजी और भारतीयोंका मत चाहे सदा न मिलता हो वे इस बातसे इनकार नहीं कर सकते कि सर मंचरजीकी वफादारी सदा अपने देशके साथ रहती है और वे सदा हृदयसे उसका हित चाहते हैं। दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय इस अपमानको विशेष रूपसे अनुभव करेंगे, क्योंकि वे यहाँके हजारों प्रतिनिधित्वहीन भारतीयोंके सच्चे मित्र सिद्ध हो चुके हैं। भारतीय किसी व्यक्तिका मूल्य उसके अंग्रेजोंके विश्वासघातकी

 
  1. देखिए खण्ड ४, पृष्ठ ५४-५।
  2. विलियम एवर्ट ग्लैड्स्टन (१८०९-९८), इंग्लैंडके प्रधानमन्त्री १८६८-७४, १८८०-५, १८८६ और १८९२-४। देखिए खण्ड ४, पृष्ठ ११४-५।
  3. प्रशासनिक सुविधाके नामपर बंगालको दो प्रान्तोंमें विभक्त कर दिया गया था, जिनमेंसे एकमें हिंदुओंकी प्रधानता थी और दूसरेमें मुसलमानोंकी। इस विभाजनसे सारे भारतमें विरोधका तूफान खड़ा हो गया, जो ब्रिटिश मालके बहिष्कार के रूपमें प्रकट हुआ। अन्त में सन् १९११में विभाजन रद कर दिया गया।