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उन्होंने बार-बार ब्रिटिश भारतीय संघके माध्यमसे ट्रान्सवाल के भारतीय समाजकी समस्याओंको लेकर जोरदार शब्दोंमें निवेदन प्रस्तुत किये। उदाहरणार्थ, ट्रान्सवाल लौटनेवाले भारतीय शरणा- थियोंसे उन्हें जाननेवाले यूरोपीयोंके नाम पूछनेकी प्रथा और ट्रामगाड़ियों तथा रेलगाड़ियों द्वारा भारतीयोंके सफरपर लगे हुए कठोर प्रतिबन्धों की उन्होंने आलोचना की। जब मार्च १९०६ में संविधान-समितिकी नियुक्ति हुई, तब गांधीजीके नेतृत्वमें संघने जोरदार तरीकेसे उसके सामने भारतीय दृष्टिकोण रखा। अनुमतिपत्रोंकी समस्या इतनी तीव्र हो गई थी कि संघने कतिपय परीक्षात्मक मुकदमे दायर करना भी तय किया। किन्तु चरम-स्थिति तब आई जब लॉर्ड मिलनरके आश्वासनपर स्वेच्छापूर्वक दुवारा पंजीयन करा लेनेके बाद भी सरकारने भारतीयोंको तीसरी बार पंजीयन कराने के लिए बाध्य करनेका कानून बनाना निश्चित किया। जिस दिन एशियाई अध्यादेशका मसविदा प्रकाशित हुआ उसी दिनसे दक्षिण आफ्रिकामें घटनाओंकी गति बढ गई। अगस्त २५,१९०६ को ब्रिटिश भारतीय संघने अध्यादेशका विरोध किया। ८ सितम्बरको गांधीजीने 'इंडियन ओपिनियन' में अध्यादेशकी भर्त्सना करते हुए उसे "मानवताके विरुद्ध अपराध कहा; साथ ही उसे सरकारका भारतीयोंको ट्रान्सवालसे भगानेका तरीका घोषित किया। गांधीजीने “खूनी कानून" के विषैले प्रभावोंको स्पष्ट किया और लोगोंसे फिर पंजीयन न करानेका अनुरोध किया। ११ सितंबरकी सार्वजनिक सभा एक युगान्तरकारी घटना थी। प्रसिद्ध चौथे प्रस्तावकी सिफारिश करते हुए गांधीजीने अध्यादेशके सम्मुख न झुकने और परिणामस्वरूप जेल जानेके लिए समाजका आह्वान किया। सारी परिस्थितियोंसे समाज बहुत व्यग्र हो उठा था और यह तय किया गया कि साम्राज्य-सरकारके सामने भारतीय दृष्टिकोण पेश करनेके लिए एक शिष्टमण्डल इंग्लैंड भेजा जाये।

नेटालके भारतीयोंके सामने भी अपनी समस्याएँ थीं। भारतीयोंके व्यापारिक परवाने फिरसे जारी करनेसे इनकार करना मामूली और रोजमरेकी बात हो गई थी। गांधीजीने इस परिस्थितिको गोरों और भारतीयोंके बीच स्पष्ट स्पर्धा माना। दादा उस्मानके मामलेकी अपील उपनिवेश-मन्त्रीके सामने की गई। डर्बन नगर-परिषदने भारतीय व्यापारियों और फेरीवालोंको नये परवाने जारी न करनेका निश्चय किया। इसके पहले गांधीजीने सुझाव रखा था कि परवानोंके मामलोंकी जाँच- पड़तालके लिए नेटाल भारतीय कांग्रेस एक समिति बनाये। दूसरी परेशानियां भी थीं; जैसे १६ वर्षसे अधिक उम्रके भारतीयोंपर १ पौंडका कर लाद दिया गया था; पासों और प्रमाणपत्रोंपर प्रति- षेधात्मक शुल्क लगा दिये गये थे। इस प्रकार इंग्लैंडको शिष्टमण्डल भेजना एक अनिवार्य आवश्यकता प्रतीत हुई और नेटाल भारतीय कांग्रेसने गांधीजीको भेजना तय किया। किन्तु जब फरवरी १९०६ में जूलू-विद्रोह भड़क उठा तब गांधीजीने तमाम भारतीय शिकायतोंपर से ध्यान हटा लिया और न केवल भारतीयोंको आहत सहायकोंके रूप में अपनी सेवाएं प्रदान करनेका औचित्य समझाया, बल्कि वास्तवमें नेटाल सरकारके सामने ऐसा प्रस्ताव भी पेश किया, जिसे मईके अन्ततक उसने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार शिष्टमण्डल मुल्तवी हुआ और गांधीजीने अपने १९ सहयोगियोंके साथ लगभग छः हफ्तों तक डोली-वाहकके रूपमें काम किया।

जुलाई में गांधीजी मोर्चेसे लौट आये। उन्होंने लौटकर देखा कि सरकार अभीतक अनिवार्य पुनः पंजीयनके प्रस्तावपर दृढ़ है, जिससे प्रश्नने पहलेसे भी अधिक गम्भीर रूप धारण कर लिया है। कुछ हफ्तों तक गांधीजी इसको लेकर व्यस्त रहे। लॉर्ड सेल्बोर्नने एशियाई अध्यादेशके बारेमें भारतीय पक्षको मंजूर करनेसे इनकार कर दिया और लॉर्ड एलगिनने अपना यह विचार व्यक्त किया कि शिष्टमण्डल भेजनेसे कोई लाभ नहीं होगा। किन्तु इससे भारतीय समाजका गांधीजी और अलीको इंग्लैंड भेजनेका निश्चय और भी दृढ़ हो गया। एक अन्तिम बैठकमें

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