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भूमिका

प्रस्तुत खण्डमें जुलाई १९०५ से अक्टूबर १९०६ तक की सामग्री दी गई है। यह समय गांधीजीके व्यक्तिगत जीवन और दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय समाजके जीवनमें महत्त्वपूर्ण परिवर्तनोंका है। यद्यपि ट्रान्सवालके भारतीयोंकी सेवाके व्रत और 'इंडियन ओपिनियन' के खर्चकी दृष्टिसे वे स्वयं अभीतक जोहानिसबर्ग में रहकर बैरिस्टरी कर रहे थे, फिर भी उनका फीनिक्स आश्रम सहयोगियोंके लिए घर बन गया था। इन सहयोगियोंमें श्री वेस्ट जैसे कुछ यूरोपीय भी सम्मिलित थे। जोहानिसबर्गमें उनका पारिवारिक जीवन अपेक्षाकृत अधिक स्थिर हो गया था; सहयोगी और सहकारी भी परि- वारके सदस्य थे। भोजनके बाद रातको वे तथा अन्य सदस्य धार्मिक अध्ययन और दार्शनिक चर्चा करते थे। अपने धन्धे के लिए उन्होंने जो सख्त आचार-नीति अपनाई थी उसके बावजूद उनकी वकालत बढ़ती गई। जीवनमें सादगीके साथ-साथ संयम और शारीरिक श्रमपर जोर बढ़ गया । घरसे दफ्तर तक का छ: मीलका फासला वे आते और जाते पैदल ही तय करते थे। उनके आहार-सम्बन्धी प्रयोग भी चलते रहे। अपने बड़े भाई श्री लक्ष्मीदासके नाम पत्र (मई २७, १९०६) में उन्होंने लिखा था, कुछ भी मेरा है, यह मेरा दावा नहीं है। मेरे पास जो कुछ भी है, वह सब लोक-सेवामें लगाया जा रहा है...मुझे किसी किस्मके दुनियाई सुख-भोगकी इच्छा बिलकुल नहीं है।'

सार्वजनिक कार्यकर्ताके जीवनमें ब्रह्मचर्यकी आवश्यकतापर उनका विश्वास अधिकाधिक बढ़ता गया---यह दूसरा महत्त्वपूर्ण विकास हुआ। तब उन्हें आत्मज्ञानको दिशामें उसके उपयोगकी प्रतीति नहीं हुई थी। किन्तु जूलू विद्रोहके समय, जब उन्हें डोलीवाहक दलके साथ कठिन मंजिलोंपर जाना पड़ा, उन्होंने लिखा है : “मेरे मन में विचार उदित हुआ कि यदि मैं इस तरह समाजकी सेवामें संलग्न होना चाहता हूँ तो मुझे धन और सन्तानकी इच्छा छोड़ देनी चाहिए और सांसारिक काम-काजसे अलग होकर वानप्रस्थ जीवन व्यतीत करना चाहिए। ('आत्मकथा', भाग ३, अध्याय ७) उन्हें विश्वास हो गया कि वे "आत्मा और शरीर दोनोंके लिए साथ-साथ नहीं जी सकते", और उन्होंने जीवनके ३७ वें वर्ष में आजन्म ब्रह्मचर्यका व्रत ले लिया। अन्ततः उन्हें सितम्बर ११, १९०६ की सार्वजनिक सभामें उस व्रतकी सुन्दरता और शक्तिका साक्षात्कार हुआ, जो ईश्वरको साक्षी रखकर बुरे कानूनके सामने न झुकनेके कारण मिलनेवाले दण्डको झेलने के लिए लिया गया था; और उसी दिन उस सिद्धान्तका जन्म हुआ जो बादमें "सत्याग्रह" कहलाया।

उनके हाथोंमें 'इंडियन ओपिनियन' उनके प्रभावकी उत्तरोत्तर वृद्धिका साधन बन गया था। विशेषत: गुजराती विभागके द्वारा उन्होंने दक्षिण आफ्रिकी भारतीय समाजको आत्म-संयम, स्वच्छता और अच्छी नागरिकता सिखाने और सत्याग्रहके योग्य बनानेका प्रयत्न किया। उसमें उन्होंने टॉलस्टॉय, लिंकन, मैज़िनी, एलिजाबेथ फ्राइ, फ्लॉरेन्स नाइटिंगेल, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर और टी० माधवराव जैसे महान् पुरुषों और स्त्रियोंके जीवन-चरित लिखकर अपने पाठकोंको अनुप्रेरित करनेका प्रयास किया। कुछ व्यावहारिक कठिनाइयोंके कारण बादमें उन्हें 'इंडियन ओपिनियन' के हिन्दी और तमिल विभाग बन्द कर देने पड़े। छगनलाल गांधीको लिखे उनके पत्रोंसे प्रकट होता है कि वे उक्त पथकी सामग्री, स्तर और रूप-विन्यास आदिके बारेमें तफसीलसे हिदायतें देते थे। पत्रका आर्थिक संकट अभीतक बना हुआ था और गांधीजीको उसके लिए समाजसे अधिकाधिक सहयोगकी अपील करनी पड़ती थी।

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