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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

राष्ट्रपतिने उनके सुझावोंपर कान नहीं दिया। सन् १८९६ में भारतमें प्लेग फैला और उसके बाद लगातार दो असाधारण अकाल पड़े। उस समय भारतसे इतना बड़ा प्रव्रजन हुआ जितना लोगोंकी जानकारीमें पहले कभी न हुआ था। बम्बई और दक्षिण आफ्रिकाके बन्दरगाहोंके बीच 'कूरलैंड', 'नादरी', 'हुसैनी', और 'क्रीसेंट' नामके जहाज विशेष रूपसे चलाये गये और इनपर एक-एक बारमें चार-चार सौसे भी ज्यादा दक्षिण आफ्रिका जानेवाले भारतीय सवार हुए। तब सभीको मालूम था कि इन लोगोंमें से ज्यादातर ट्रान्सवालमें दाखिल हुए।

३. सन् १८९७ के शुरूमें नेटाल प्रवासी-अधिनियम पास हुआ। सन् १८९६ के दिसम्बर महीनेमें 'नादरी' और 'कूरलैंड से सम्बन्धित डर्बन-प्रदर्शन हुआ। ये जहाज कुल मिलाकर ८०० से अधिक यात्री लेकर आये थे जिनमें से ५०० यात्री उसी महीने में ट्रान्सवाल चले गये। इनमें से एक-एक जहाजने हर साल चार-चार खेवे किये। एक-एक खेवेमें इनपर, अधिवासी भारतीयोंके अतिरिक्त, तीन-तीन सौ यात्री भी आये हों तो सिर्फ चार जहाजोंसे भारतीयोंकी संख्यामें ४,८०० की वार्षिक अभिवृद्धि हुई होगी। किंग्सलाइन और ब्रिटिश इंडियन स्टीम नेवीगेशन कम्पनीके जहाज भारतके दूसरे हिस्सोंसे जिन लोगोंको लाये, सो अलग। इन जहाजोंमें से हर एकपर आनेवाले यात्रियोंकी तादादकी सचाई जहाजी कम्पनियों या नेटालके बन्दरगाह-अधिकारियोंसे पूछ कर जाँची जा सकती है।

लेखकके इस मतका अनुमोदन उन दूसरे ब्रिटिश भारतीयोंके मतसे भी होता है जो कि ट्रान्सवालके पुराने निवासी हैं।

४. हम जिसे भारतीय-विरोधी दल कह सकते हैं, उसके सार्वजनिक वक्तव्योंको यदि विरोधी मतके रूपमें पेश किया जाये तो उनमें जो कुछ कहा गया है, उसपर संयम रखकर बात करना बहुत कठिन है। उस दलके लोगोंने जितने दोषारोपण किये हैं उनमें से हर एककी सचाईको बार-बार चुनौती दी गई है और वे गलत साबित भी किये जा चुके हैं। और इसके बाद भी वे उन्हें दुहराते रहने और ब्रिटिश भारतीयोंके खिलाफ लोगोंको भड़काते रहनेसे नहीं झिझके हैं। हम इसके केवल तीन उदाहरण लें। उन्होंने युद्धसे पहले और युद्धके बाद पीटर्सबर्गमें व्यापार करनेवालोंकी संख्याके कुछ आँकड़े दिये थे। इन दोनों आँकड़ोंको चुनौती दी गई है। युद्धसे पहले व्यापार करनेवालोंके नाम पेश कर दिये गये हैं। फिर भी पहला ही वक्तव्य दुहराया गया है। उन्होंने कहा है कि भारतीय युद्धसे पहले ट्रान्सवालमें आये हों और उन्हें अपने नाम दर्ज न कराने पड़े हों, यह असम्भव है। मेरे संघको यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि इस कथनमें सचाई नहीं है। इस देशमें जो लोग दाखिल हुए, उनमें से सचमुच मुश्किलसे एक तिहाई लोग दर्ज किये गये। ये केवल वे लोग थे जिन्हें व्यापारके लिए परवाने लेने पड़े थे। फिर इनमें इनके साझेदार अवश्य ही शामिल नहीं थे। मेरा संघ इस बातके असंदिग्ध प्रमाण दे सकता है कि युद्धसे पहले ट्रान्सवालमें ऐसे ब्रिटिश भारतीय थे जिन्होंने कभी पंजीयन शुल्क नहीं दिया। उनमें कई जाने-माने लोग है जिनकी शिनाख्त गण्यमान्य यूरोपीय व्यापारियोंसे करायी जा सकती है।

१. देखिए, खण्ड २, पृष्ठ १६६ ।