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ईश्वरचन्द्र विद्यासागर

साठ मील दूर पैदल कलकत्ता जाना पड़ा और वे वहाँ संस्कृत कालेजमें भर्ती हो गये। उनकी स्मरणशक्ति ऐसी अद्भुत थी कि उन्होंने यात्रामें मीलके अंकोंको देख-देखकर अंग्रेजी अंक सीख लिये थे। सोलह वर्षकी आयु तक वे संस्कृतका बहुत अच्छा अध्ययन कर चुके थे और संस्कृतके अध्यापक नियुक्त कर दिये गये थे। वे एक-एक सीढ़ी चढ़ते-चढ़ते अन्तमें उसी कॉलेजके आचार्य के पदपर जा पहुँचे जिसमें वे पढ़े थे। सरकार उनका अत्यन्त आदर करती थी। परन्तु स्वतन्त्र स्वभावके होनेसे उनको शिक्षा-विभागके निदेशककी बात सहन नहीं हो सकी ; इसलिए उन्होंने इस्तीफा दे दिया। बंगालके लेफ्टिनेंट गवर्नर सर फ्रेड्रिक हैलीडेने उनको बुलाया और कहा कि वे अपना इस्तीफा वापस ले लें; किन्तु ईश्वरचन्द्रने उसको वापस लेनेसे साफ इनकार कर दिया।

इस प्रकार नौकरी छोड़नेके बाद ईश्वरचन्द्रकी महानता और मानवता अच्छी तरह विकसित हुई। उन्होंने देखा कि बंगला बहुत अच्छी भाषा है; किन्तु उसमें नई रचनाएँ नहीं हैं। इसलिए वह निर्धन लगती है। अतः उन्होंने बंगला पुस्तकोंकी रचना शुरू की। उन्होंने बहुत अच्छी पुस्तकें लिखी हैं। आज बंगला भाषा समस्त भारतमें विकसित हो रही है और उसका बहुत विस्तार हो गया है। इसका मुख्य कारण विद्यासागर ही हैं।

परन्तु उन्होंने देखा कि पुस्तकें लिखना ही काफी नहीं है। इसलिए उन्होंने स्कूल खोले। कलकत्तेका मैट्रोपॉलिटन कॉलेज विद्यासागरका ही स्थापित किया हुआ है और उसको भारतीय ही चलाते हैं।

जिस प्रकार ऊँची शिक्षा जरूरी है, उसी प्रकार प्रारम्भिक शिक्षा भी। इसी कारण उन्होंने गरीबोंके लिए प्रारम्भिक शालाएं स्थापित की। यह काम बहुत बड़ा था। उनको इसमें सरकारकी सहायताकी जरूरत थी। लेफ्टिनेंट गवर्नरने कहा कि इसका खर्च सरकार देगी। वाइसराय लॉर्ड ऐलनबरो' इसके विरुद्ध थे। इस कारण विद्यासागरने जो खर्चका चिट्ठा पेश किया वह मंजूर नहीं किया गया। लेफ्टिनेंट गवर्नर बहुत दुःखित हुए और उन्होंने ईश्वरचन्द्रको सूचित किया कि वे उनपर दावा कर दें। वीर ईश्वरचन्द्रने जवाब दिया : “साहब ! मैं अपने लिए इन्साफ हासिल करनेके उद्देश्यसे कभी अदालत नहीं गया। तब मैं आपके ऊपर दावा करूँ, यह कैसे हो सकता है।" उस समय दूसरे अंग्रेज ईश्वरचन्द्रकी मदद किया करते थे और उन्होंने उनको रुपये- पैसेकी अच्छी सहायता दी। वे खुद बहुत मालदार नहीं थे, इसलिए दूसरोंका दुःख दूर करनेकी खातिर वे बहुत बार खुद कर्जदार हो जाते थे। फिर भी उन्होंने अपने लिए सार्वजनिक चन्दा करनेकी बात स्वीकार नहीं की।

उनको ऊँची शिक्षा और प्रारम्भिक शिक्षाकी मजबूत नींव रखकर सन्तोष नहीं हुआ। उन्होंने देखा कि स्त्री-शिक्षाके अभावमें लड़कोको शिक्षा देना ही काफी नहीं है। उन्होंने मनु- स्मृतिमें से ढूंढकर एक श्लोक निकाला जिसका आशय था कि स्त्रियोंको शिक्षा देना कर्तव्य है। उसका उपयोग करके उन्होंने उनके लिए पुस्तकें लिखीं और बेथ्युन साहबके सहयोगसे स्त्रियोंकी शिक्षाके लिए बेथ्युन कॉलेजकी स्थापना की। परन्तु कॉलेजकी स्थापनाकी अपेक्षा उसमें स्त्रियोंको लाना ज्यादा कठिन था। वे स्वयं साधु-जीवन व्यतीत करते थे और महान् विद्वान थे। इस कारण सभी लोग उनका बहुत सम्मान करते थे। इसलिए उन्होंने प्रतिष्ठित लोगोंसे भेंट की और उनको अपनी लड़कियाँ कॉलेजमें भेजनेके लिए समझाया। इससे बड़े लोगोंकी लड़कियाँ पढ़नेके लिए आने लगीं। आज इस कॉलेजमें बहुत-सी ऐसी प्रतिष्ठित, बुद्धिमती और सुशील स्त्रियाँ हैं, जो इसकी व्यवस्था भी चला सकती हैं।

१. १८४२-४४ में भारतके गवर्नर-जनरल ।