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८७. ईश्वरचन्द्र विद्यासागर

हम इन स्तंभोंमें यूरोपके कुछ अच्छे स्त्री-पुरुषोंके जीवन वृत्तान्त संक्षेपमें छाप चुके हैं। इन जीवन वृत्तान्तोंको छापनेमें हमारा उद्देश्य यह है कि इनसे हमारे पाठकोंका ज्ञान बढ़े और वे अपने जीवनमें उनके उदाहरणोंका अनुकरण करके उसे सार्थक बनायें।

बंगालमें विलायती मालके बहिष्कारका जो जोरदार आन्दोलन चल रहा है वह मामूली नहीं है। बंगालमें शिक्षा बहुत है और लोग बहुत ही चतुर है, इसलिए वहाँ ऐसा आन्दोलन हो सका है। सर हेनरी कॉटन कह चुके हैं कि बंगाल कलकत्तासे पेशावर तक शासन चलाता है। इसका कारण जाननेकी जरूरत है।

यह निश्चित है कि प्रत्येक जातिकी उन्नति और अवनति उसके महापुरुषोंपर अवलम्बित है। जिस जातिमें अच्छे लोग पैदा होते हैं उसपर उन लोगोंका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। बंगालमें जो विशेषता दिखाई देती है उसके कारण कई हैं। किन्तु उनमें एक मुख्य कारण यह है कि बंगालमें पिछली शताब्दीमें बहुत महापुरुष उत्पन्न हुए। राममोहन रायके बाद वहाँ वीर पुरुषोंकी एक परम्परा आरम्भ हुई जिससे दूसरे प्रान्तोंके मुकाबले बंगालकी स्थिति बहुत अच्छी हो गई। यह कहा जा सकता है कि इन लोगोंमें ईश्वरचन्द्र विद्यासागर महानतम थे। 'विद्या- सागर' ईश्वरचन्द्रकी उपाधि थी। उनका संस्कृत भाषाका ज्ञान इतना ऊँचा था कि कलकत्तेके विद्वानोंने उसीके कारण उनको “विद्याके सागर" की उपाधि प्रदान की। परन्तु ईश्वरचन्द्र केवल विद्याके ही सागर नहीं थे, बल्कि दया, उदारता, और अन्य अनेक सद्गुणोंके सागर भी थे। वे हिन्दू थे और हिन्दुओंमें भी ब्राह्मण । परन्तु उनके मनमें ब्राह्मण और शूद्र तथा हिन्दू और मुसलमान समान थे। वे जो भी अच्छा काम करते थे, उसमें ऊँच और नीचका भेद नहीं करते थे। उनके प्राध्यापकको हैजा हुआ तो उन्होंने खुद सेवा-शुश्रूषा की। प्राध्यापक गरीब थे, इसलिए वे उनके लिए अपने खर्चसे ही डॉक्टर लाये और उनका मल-मूत्र भी उन्होंने खुद ही उठाया।

वे चन्द्रनगरमें अपने रुपयेसे कुलची और दही खरीदकर गरीब मुसलमानोंको जिमाते और जिनको पैसेकी मददकी जरूरत होती उनको पैसा भी देते थे। रास्तेमें कोई अपंग या दुःखी मनुष्य मिलता तो उसको अपने घर ले जाकर उसकी सार-सँभाल खुद करते थे। वे पराये दु:खमें दुःख और पराये सुख में सुख मानते थे।

उनका अपना जीवन अत्यन्त सीधा-सादा था। शरीरपर मोटी धोती, ओढ़नेकी वैसी ही मोटी चद्दर और स्लिपर -यह थी उनकी पोशाक । वे ऐसी पोशाक पहनकर ही गवर्नरोंसे मिलते और उसीको पहनकर गरीबोंकी आवभगत करते। यह व्यक्ति सचमुच एक फकीर, संन्यासी या योगी था। इसके जीवनपर विचार करना हमारे लिए बहुत ही उचित होगा।

ईश्वरचन्द्र मिदनापुर तालुकेके एक छोटेसे गाँवमें गरीब माँ-बापके घर पैदा हुए थे। उनकी माँ बड़ी साध्वी थीं और उनको बहुतसे गुण अपनी माँ से ही मिले थे। उन दिनों भी उनके पिता थोड़ी अंग्रेजी जानते थे। उन्होंने अपने पुत्रको अंग्रेजीकी उच्च शिक्षा दिलानेका निश्चय किया। ईश्वरचन्द्रका विद्यारम्भ पाँच वर्षकी आयुमें हुआ और आठ वर्षकी आयुमें उन्हें अध्ययनके लिए

१. (१७७४-१८३३) भारतके महान धर्म सुधारक, ब्रह्मसमाजकी स्थापना की, सती प्रथाका उन्मूलन करवाया, और भारतमें शिक्षा-प्रचारके लिए कठिन परिश्रम किया।

२. कुलची : एक प्रकारकी खमीरी या पाव रोटी।