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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

आवश्यकता ही नहीं कि इस सम्बन्धमें सारी दुनियामें उसका स्थान पहला ही होगा। मेरे पास अमेरिका, इंग्लैंड और दुनियाके विभिन्न हिस्सोंसे अनेक यात्री आते हैं। वे जब हमारे इस शहरकी गन्दी गलियों और रास्तोंकी बात करने लगते हैं तो मेरा सिर शर्म से झुक जाता है। इस स्थितिको हमें सुधारना चाहिए। यदि हम अपनी बुद्धि और शरीरिक शक्तिका उपयोग करें तो हम अहमदाबादको एक रमणीय शहर बना सकते हैं। अन्तमें, आपने मुझे इस शालाका शिलान्यास करनेका अवसर दिया, उसके लिए मैं आप सब लोगोंका आभार मानता हूँ और कामना करता हूँ कि इस शालाकी उत्तरोत्तर वृद्धि हो। शिक्षित लोग धनोपार्जन अवश्य करें किन्तु वे उसका संग्रह न करें, अपने धनका लाभ उदारतापूर्वक दूसरोंको दें, ऐसी मेरी नम्र प्रार्थना है।

[गुजरातीसे]

प्रजाबन्धु, ९-९-१९२८

 

२८४. पत्र: एम॰ जफरुलमुल्कको

सत्याग्रहाश्रम, साबरमती
८ सितम्बर, १९२८

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। आशा है आपके प्रचारके फलस्वरूप आपकी योजना लोकप्रिय हो सकेगी। यहाँ आनेपर आप बेशक मुझसे इस विषय पर जी-भरकर चर्चाकर लीजिएगा।

संविधानके सम्बन्धमें मैं यह स्वीकार करता हूँ कि यह बिलकुल पाश्चात्य ढंगका है। लेकिन मैंने इस बातकी कोई फिक्र नहीं की है कि यह पाश्चात्य ढंगका है अथवा प्राच्य ढंगका। यदि हममें सच्ची जागरूकता होगी तो हम इसे जैसा चाहेंगे वैसा बना सकेंगे और स्वयं इसके शब्दोंका गुलाम बन जाने के बजाय इसे ऐसा रूप दे सकेंगे जिससे हमारा प्रयोजन सिद्ध हो। यह संविधान, हमारे यहाँ आज जो शासन-संस्थाएँ हैं उनका स्वाभाविक परिणाम है। विधान सभासे सम्बद्ध कोई व्यक्ति किसी अन्य प्रकारका संविधान दे भी नहीं सकता था, और यदि हम भारतकी वर्तमान शासन-प्रणालीका स्वाभाविक परिणाम — यह संविधान — प्राप्त कर लेते हैं और तब देखते हैं कि यह यहाँके लोगोंकी प्रकृतिके अनुकूल नहीं पड़ रहा है तो विश्वास रखिए कि जिन्होंने यह संविधान बनाया है, वे इसे नष्ट करके कोई उपयुक्त संविधान अवश्य गढ़ लेंगे। जरूरी यह है कि जो चीज हमपर भार बनकर हमें दबा रही है, उसे दूर किया जाये। और यह देखते हुए कि एक कामचलाऊ संविधानपर हममें किसी हद तक सहमति हो गई है, मेरे विचारसे इस संविधानको अस्वीकार