१२६. पत्र: वसुमती पण्डितको
आश्रम, साबरमती
१ अगस्त, १९२८
मैं यह पत्र सवेरे ३ बजेके पहले लिखवा रहा हूँ। बीमारीकी वजहसे घबराहट तो नहीं होती? प्रफुल्लचित्त रहना। यदि निराश होने लगो तो अर्थ सहित
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥[१]
का पाठ कर अपने दुःखको भूल जाना और चित्त प्रसन्न रखना। जो डॉक्टर तुम्हें देखने आता है उसका क्या नाम है? फिलहाल खानेको क्या बताया है? नानी बहनका उपवास पूरा हो गया यह तो तुम जानती ही होगी। मुझे शायद आज-कलमें बारडोली जाना पड़े।
बापूके आशीर्वाद
कन्या गुरुकुल
गुजराती (सी॰ डब्ल्यू॰ ४८८) से।
सौजन्य : वसुमती पण्डित
१२७. पत्र: हरि-इच्छा देसाईको
१ अगस्त, १९२८
मुझे तुम्हारे कई पत्र मिले किन्तु मैं उनका उत्तर नहीं दे सका। तुम्हारे बारेमें चि॰ रसिकसे खबर तो मुझे मिलती ही रहती है।
रसिकने स्कूल छोड़कर कुछ गँवाया नहीं है। वह पढ़नेकी अपेक्षा यहाँ रहकर कहीं अधिक सीख सकेगा। अतः उसका स्कूल छूट जानेके कारण दुःख मनानेकी कोई बात ही नहीं है।
मुझे तो तुमसे यह आशा थी ही कि तुम वहाँ आश्रमका वातावरण बनाये रख सकोगी। मैंने सुना है कि उक्त वातावरण जिस हद तुम बनाये रख सकी प्रभा
- ↑ भगवद्गीता अध्याय २-५६।