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अराजकता बनाम कुशासन

व्यवस्थाकी प्रत्यक्ष रूपसे उत्पत्ति नहीं हो सकती। मेरे खयालसे मेरे मित्रकी कठिनाई इस मान्यतासे उत्पन्न हुई है कि 'वर्तमान भारत सरकार कुछ न कुछ अनुशासन तो रखती ही है, फिर चाहे वह बलात् अथवा प्रेरित क्यों न हो' । वर्तमान प्रणालीके सम्बन्धमें हमारे विचारोंमें अन्तर सम्भव है। इसके सम्बन्धमें मेरा विचार तो यह है कि यह शासन एक विशुद्ध बुराई है। और इसलिए उससे कोई अच्छाई उत्पन्न नहीं हो सकती। मैं कुशासनको शासनके अभावसे ज्यादा बुरा मानता हूँ ।

मेरे शब्दोंसे अज्ञानी अथवा हिंसाकारी लोगोंके मनमें कोई विभ्रम पैदा होना भी जरूरी नहीं है। क्योंकि मैं अपने पत्र लेखककी इस दलीलको मानता हूँ कि अराजकता केवल हिंसासे ही उत्पन्न हो सकती है। क्या मैंने इन पृष्ठोंमें बार-बार यह नहीं कहा है कि यदि मुझे इस शासन और हिंसाके बीचमें चुनाव करनेके लिए बाध्य होना पड़े, तो यद्यपि मैं हिंसापर आधारित लड़ाईमें सहायता नहीं दूंगा, उसमें सहायता दे नहीं सकता, फिर भी मेरा मत हिंसाके पक्षमें जायेगा ? इस मामलेमें मेरी गति साँप छछूंदर जैसी ही होगी। आज देखनेमें जो शान्ति मालूम पड़ती है, वह बड़ी हिंसाके डरसे उत्पन्न हिंसाका ही एक खतरनाक रूप अथवा उसकी तैयारी है। जो लोग कायरतापूर्ण मृत्यु अथवा अपनी सम्पत्ति छिननेके डरसे मनमें हिंसा रखते हुए भी हिंसा नहीं करते, क्या उनके लिए हिंसा करके दासतासे मुक्त होना अथवा अपने जन्मसिद्ध अधिकारको प्राप्त करनेके लिए प्रयत्न करते हुए सम्मानपूर्वक मरना अधिक अच्छा न होगा ?

मेरी अहिंसा कोई ऐसा बौद्धिक सिद्धान्त नहीं है, जिसकी अनुकूल अवसरोंपर घोषणा भर की जाती रहे । यह ऐसा सिद्धान्त है जिसे मैं जीवनके प्रत्येक क्षणमें और प्रत्येक कार्यक्षेत्रमें लागू करनेका प्रयत्न कर रहा हूँ। अहिंसाको लागू करनेके इस प्रयत्नमें लगे रहनेपर भी प्राय: मेरी कमजोरी अथवा मेरे अज्ञानके कारण जब मैं विफल हो जाता हूँ, तब स्वयं इस सिद्धान्तकी ही खातिर, मानसिक स्वीकृतिके रूपमें हिंसाका समर्थन करनेके लिए बाध्य हो जाता हूँ । १९२१ में मैंने बेतियाके पास एक गाँवमें लोगोंसे यह कहा था कि बुरे विचारोंसे युक्त सरकारी कर्मचारियोंके यहाँ पहुँचनेपर उनका प्रतिरोध करनेके बजाय अपनी पत्नियों और अपने घरोंको छोड़कर उनका भाग जाना कायरों जैसा काम था । एक अन्य अवसरपर मैंने एक पुजारीके सम्बन्धमें यह कहा था कि मैं उसके व्यवहारसे लज्जित हूँ। इस पुजारीने मुझे बताया था कि जब गुण्डोंका एक दल उसके मन्दिरमें लूट करने और मूर्तियोंको तोड़ने के लिए घुसा तब वह चुपचाप वहाँसे भाग गया और उसने इस प्रकार अपनी जान बचाई। मैंने उससे कहा कि यदि वह अपने द्वारा रक्षणीय वस्तुकी रक्षा अहिंसासे करता हुआ वहीं अपने प्राण नहीं दे सकता था तो उसे हिंसात्मक प्रतिरोध करके उसकी रक्षा करनी चाहिए थी। इसी प्रकार मैं यह मानता हूँ कि यदि भारतका अहिंसा में विश्वास नहीं है और यदि उसमें उसके अनुसार अमल करनेका धीरज भी नहीं है, तो वर्तमान कुशासनको असहायकी तरह सहन करने और अपनी सम्पत्ति और सम्मानका अपहरण होते रहने देनेकी अपेक्षा इस कुशासनसे हिंसाके द्वारा स्वतन्त्र होना भी अधिक अच्छा है।

१. देखिए खण्ड १९; पृष्ठ ९१--९२ ।