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४८. पत्र : सी० एफ० एन्ड्रयूजको

यात्रामें
मदुरै
१ अक्टूबर, १९२७

प्रिय चार्ली,

तुम्हारा पत्र मिला । तुम्हारी इस मामूली चोटने मुझे इस सिद्धान्तका कि दूसरोंके प्रति वैसा ही व्यवहार करो जिसकी तुम दूसरोंसे अपने प्रति अपेक्षा करते हो" नया अर्थ प्रदान किया है। मैंने तुम्हारी चोटके सम्बन्धमें वही किया था जैसा कि मैं तुमसे अपने लिए चाहता। लेकिन मैं महसूस कर रहा हूँ कि इस सिद्धान्तको तुम्हारे ऊपर लागू करनेमें मैंने निहायत गलती की। मुझे तुम्हारे साथ सिर्फ वही नहीं करना चाहिए था जिसकी कि मैं तुमसे अपने लिए अपेक्षा करता, बल्कि मुझे वह करना चाहिए था जिसकी कि तुम्हें जरूरत थी। निर्णायक वस्तु तुम्हारी इच्छा नहीं बल्कि तुम्हारी आवश्यकता होनी चाहिए थी। अगर मुझे इसका ध्यान होता, जो कि मुझे रखना चाहिए था, कि तुम्हारी त्वचा काफी नाजुक है, उसमें रोग बहुत जल्दी फैलता है और चोट लगनेपर मुश्किलसे ठीक होनेमें आती है, तो मैं घावको अच्छी तरहसे साफ कर देता और ताजा खून निकालकर पट्टी बाँध देता। लेकिन हुआ यह कि मैंने अपने तथा उन दूसरे लोगोंके अनुभवका अनुसरण किया जिनकी त्वचा मामूली इलाजसे ही दुरुस्त हो जाती है और इस प्रकार मैंने बड़ी भारी गलती की। खुदाका शुक्र है कि तुम थोड़ी-बहुत तकलीफ उठाकर ही ठीक हो जाओगे। लेकिन मुझे नहीं मालूम कि अगर कहीं गम्भीर रूपसे खूनमें जहर फैल जाता, जैसा कि फैल सकता था, तब मैं अपने बारेमें क्या सोचता और क्या करता ।

आशा है, आज मैंने जो तार[१] तुम्हें भेजा है उसके उत्तरसे मेरी सारी चिन्ता दूर हो जायेगी। इस तारमें मैंने कताई निबन्धके सम्बन्धमें अपनी राय भी दी है। इससे भी अच्छा कोई और निबन्ध उपलब्ध हो तो मुझे मालूम नहीं, लेकिन मैं किसी भी हालतमें ऐसा नहीं मानता कि इससे अच्छा निबन्ध लिखा नहीं जा सकता था। इसके लेखकद्वय योग्य व्यक्ति हैं लेकिन विषयके सम्बन्धमें उनकी साधना, जहाँतक मैं समझता हूँ, उच्चतम कोटिकी नहीं है। उनसे जितना भी अच्छा बन पड़ा, उन्होंने किया । लेकिन इस समय देशमें लोगोंकी मनःशक्तिके लिए नाशकारी अमौलिकताका जो अशुभ वातावरण है उसके कारण किसीमें भी ज्यादा सोचने-विचारनेकी क्षमता नहीं रही है। थोड़ा-सा प्रयत्न करने मात्रसे ही हममें आलस्य छा जाता है और तब काम घटिया किस्मका होता है। इसलिए मुझे इसमें सन्देह है कि यह निबन्ध वाइसरायको पूरी

  1. १. देखिए “तार : सी० एफ० एन्ड्यूजको", १-१०-१९२७ ।