पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 35.pdf/९०

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

और दुनियाकी हस्तकलाओंके क्षेत्रमें अपना पैर फैलाते जाना ही इन बड़े उद्योगपति- योंका उद्देश्य और आदर्श है। बल्कि सच तो यह है कि इस उद्योगको भी आपके हाथोंसे ले लेनेकी कोशिश करना स्वयं उद्योगपतियोंके अस्तित्व के लिए आवश्यक है। यदि बुनकर मेरे अनुभवसे फायदा नहीं उठाते तो कताई-उद्योगका जो हाल हुआ है, वही हाल बुनाई उद्योगका भी होना निश्चित है। आप नहीं जानते, और भारतमें बहुत कम लोग जानते हैं, इसलिए मैं आपको बता दूं कि जो-कुछ आप आज कर रहे हैं, मैंने भी उसीसे शुरुआत की थी। मैं १९१५ में पहली बार बुनकर बना। मैंने आपको बताया कि मैं पहले बुनकर और बादमें कतैया हूँ। मैंने इन्हीं हाथोंसे विदेशी सूत और अपनी मिलोंका सूत बुना है। लेकिन इस धन्धेका रहस्य आपसे ज्यादा जाननेका दावा करनेके लिए आप मुझे क्षमा करेंगे। जब मैं अपने करघेपर बैठा - मैं बता सकता हूँ कि ठीक किस जगहपर बैठकर मैं कपड़ा बुन रहा था -- यह भी बता दूं कि मैं निश्चय ही उतना बढ़िया नहीं बुन रहा था जितना कि आपमेंसे कोई बुन सकता है -- उस समय मैं सोच रहा था कि यदि मिलें इस प्रकारका कपड़ा स्वयं बुन सकने योग्य हो जायें तो मैं, और हजारों और दसियों हजार बुनकर कहाँ जायेंगे, क्या करेंगे। और जब मैं यह बात सोच रहा था तो मेरा मन हमारे गाँवोंकी लाखों भूखी बहनोंकी ओर गया, और मैं बुनाई करते-करते इन बहनोंकी दशाके बारेमें सोचने लगा। मैं दुखी और खिन्न हो उठा और अपने साथियोंके साथ किसी ऐसे कतैयेकी खोजमें जुट गया जो हमें कातना सिखा दे; और मैंने यह जाननेकी भी कोशिश की कि क्या कोई ऐसा गाँव है, जहाँ कताई अब भी होती हो। मुझे उस समय इस बातका कोई पता नहीं था कि पंजाबमें कुछ बहनें हैं जो कताई करती हैं। लेकिन मेरे मनमें निराशा छाई जा रही थी। मैं गुजरातकी एक वीर विधवा महिलाकी[१] शरण में गया। वह अस्पृश्योंकी सेवामें लगी थीं। मैंने अपना यह गहरा दुख इन महान बहनको बताया। और मैंने उनपर यह काम सौंपा कि वे गुजरातमें जगह-जगह जायें और तबतक चैनसे न बैठें जबतक वे ऐसी बहनोंको न पा जायें, जिन्हें कताई- कला अभी भी आती हो। और यही बहन थीं, जिन्होंने गुजरातमें बीजापुर नामक स्थान पर कुछ ऐसी मुसलमान बहनोंको ढूंढ निकाला जो इस शर्तपर कातनेको तैयार थीं कि गंगाबहन उनसे सूत खरीद लें। उसी क्षणसे महान पुनरुद्धारका वह कार्य आरम्भ हुआ जो आज भारतमें १५०० से अधिक गाँवोंमें चल रहा है। और इसी खोजके बाद मैंने निश्चय किया कि मैं अपने आश्रममें, जिसका कि में प्रधान था, विदेशी या मिलके बने सूतका एक धागा भी नहीं बुनूंगा।

मैं आपके विचारार्थ एक और महत्त्वपूर्ण बात सामने रखता हूँ। यदि आप भारतमें बुनाई आन्दोलनके इतिहासको पढ़ें तो आप देखेंगे कि इस समय कई हजार बुनकरों- को मजबूर होकर अपना धन्धा छोड़ना पड़ा है। ये सभी बुनकर, आप ही के हमपेशा ये सौराष्ट्री लोग, आज बम्बईमें भंगियोंका काम कर रहे हैं। पंजाबके बुनकरोंमें से कुछ किरायेके सैनिक बन गये हैं, और कुछने कसाईका पेशा अपना लिया है। और

  1. १. गंगाबहन मजमूदार; देखिए आत्मकथा, भाग ५, अध्याय ३९ और ४० ।