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परिशिष्ट

करनेका अपना विशेष दायित्व निभा सके। आखिरकार हिन्दू-धर्म में कुछ ऐसा है जिसने उसे अबतक जीवित रखा है। इसने बँबिलोनिया, सीरिया, फारस और मिस्रकी सभ्यताओंका पतन होते देखा है। अपने चारों ओर एक नजर डालिए। कहाँ है रोम और कहाँ है यूनान? क्या आज आप गिबन द्वारा वर्णित इटलीको—या प्राचीन रोम कहें, क्योंकि रोम ही इटली था—कहीं देख सकते हैं? यूनान जाइए। विश्व-विख्यात् ऐटिक सभ्यता कहाँ है? फिर भारतमें आइए, यहाँके प्राचीनतम लेख-आलेखोंको देखिए और फिर अपने चारों ओर देखिए। आप विवश होकर कहेंगे, 'हाँ, मैं यहाँ प्राचीन भारतको अभी भी जीवित देखता हूँ।' यह सही है कि यहाँ-वहाँ गोबरके ढेर भी हैं, लेकिन उनके नीचे बहुमूल्य खजाने दबे पड़े हैं। और उसके जीवित रहनेका कारण यही है कि हिन्दू-धर्मने अपने सामने जो उद्देश्य रखा था वह भौतिक दिशामें नहीं बल्कि आध्यात्मिक दिशामें विकास करनेका था।

हिन्दू धर्मकी अनेक देनोंमें से एक अनोखी देन है मूक प्राणियोंके साथ मनुष्यके तादात्म्यका विचार। मेरी दृष्टिमें गौ-पूजा एक महान विचार है जिसका और विस्तार किया जा सकता है। आधुनिक धर्म-परिवर्तन करनेकी प्रवृत्तिसे उसका मुक्त रहना भी मेरी दृष्टिमें एक बहुमूल्य चीज है। इसको प्रचारकी कोई आवश्यकता नहीं है। यह कहता है, 'जीवनको जियो।' अब यह मेरा काम है, आपका काम है कि हम जीवनको जियें और फिर उसका प्रभाव आनेवाले युगोंपर छोड़ जायें। अब उसने जो विभूतियाँ प्रदान की हैं उन्हें लीजिए; अपेक्षाकृत ज्यादा आधुनिक नामोंको छोड़ भी दें तो रामानुज हैं, चैतन्य हैं, रामकृष्ण हैं जिन्होंने हिन्दू-धर्मपर अपनी छाप छोड़ी है। हिन्दू धर्म किसी भी हालतमें एक मृतप्राय शक्ति या मृत धर्म नहीं है।

फिर आश्रमोंके रूपमें उसका योगदान है, जो एक अनोखा योगदान है। इसके समान चीज सारे संसारमें नहीं है। कैथॉलिक ईसाइयोंमें विवाह न करनेवाले लोगोंका एक समुदाय है जो अपने यहाँके ब्रह्मचारियों जैसा है, लेकिन जो एक संस्था नहीं है, जबकि भारतमें प्रत्येक बालकको प्रथम आश्रमसे गुजरना पड़ता है। क्या ही शानदार यह कल्पना थी! आज हमारी आँखें मैली हैं, विचार और भी मैले हैं और शरीर सबसे ज्यादा मैले हैं, क्योंकि हम हिन्दू-धर्मको नकार रहे हैं।

एक और भी चीज है जिसका मैंने उल्लेख नहीं किया है। मैक्समूलरने चालीस वर्षं पहले कहा था कि यूरोपवाले धीरे-धीरे अब यह समझ रहे हैं कि पुनर्जन्मकी बात कोई सिद्धान्त नहीं बल्कि एक तथ्य है। तो, यह विचार पूरी तरह हिन्दू-धर्मकी ही देन है।

आज वर्णाश्रम धर्म और हिन्दू-धर्मको उसके माननेवाले ही गलत रूपमें पेश कर रहे हैं और उससे नकार रहे हैं। इसका उपाय नष्ट करना नहीं है, सुधार करना है। हम अपने अन्दर सच्ची हिन्दू भावना पैदा करें और फिर पूछें कि वह आत्माको संतुष्ट करती है या नहीं।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २४-११-१९२७
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