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परिशिष्ट

बल्कि सेवाके लिए कोई कुशाग्रबुद्धि बढ़ई वकील बन जाये तो यह बिलकुल ठीक होगा। बादमें यश और धनकी कामना पैदा हो गई। वैद्य लोग समाजकी सेवा करते थे और जो कुछ उन्हें समाजसे मिलता था उससे वे संतुष्ट रहते थे। किन्तु अब वे व्यापारी बन गये हैं, बल्कि समाजके लिए एक खतरा बन गये हैं। जब भावना शुद्ध सेवा करनेकी हुआ करती थी उस समय वैद्यक और वकालतके धन्धे उदार धन्धे कहलाते थे, जो कि सर्वथा ठीक था।
प्रश्न : यह सब तो आदर्श परिस्थितियोंकी बात है। लेकिन आज जब हर आदमी आमदनीवाले धन्धोंके पीछे दौड़ रहा है, तब आप क्या सुझायेंगे?
उत्तर : यह तो अतिरंजित सामान्यीकरण है। स्कूलों और कालेजोंमें पढ़नेवाले लड़कोंकी कुल संख्या जोड़िए और फिर उन लड़कोंका प्रतिशत निकालिए जो ऐसे धन्धों में जाते हैं जिनमें पाण्डित्यकी आवश्यकता होती है। हर आदमी लुटेरा नहीं हो सकता। आज तो लुटेरा बननेके लिए आन्दोलन होता प्रतीत होता है। कितने लोग वकील और सरकारी मुलाजिम बन सकते हैं? जो लोग वैध रूपसे धन कमानेका कार्य कर सकते हैं वे वैश्य हैं। वहाँ भी, जब उनका धन्धा लूट-खसोटका रूप धारण कर ले तो वह घृण्य है। संसारमें लाखों लखपती नहीं हो सकते।
प्रश्न : जहाँतक तमिलनाडुका प्रश्न है, सभी अब्राह्मण ऐसे धन्धोंको अपनाना चाहते हैं जो उनके बाप-दादोंका धन्धा नहीं है।
उत्तर : दो करोड़ २० लाख तमिल लोगोंकी तरफसे बोलनेके आपके दावेको मैं अस्वीकार करता हूँ। मैं आपको एक मन्त्र देता हूँ : हम कुछ ऐसी चीज बननेकी कोशिश न करें जो अन्य लोगोंके लिए सम्भव न हो"। और इस प्रस्तावको आप मेरे द्वारा परिभाषित वर्णके आधारपर ही कार्यान्वित कर सकते हैं।
प्रश्न : आप कहते रहे हैं कि वर्ण-धर्म हमारी सांसारिक महत्वाकांक्षाओंका दमन करता है। सो कैसे?
उत्तर : यदि मैं अपने पिताके धंधेको अपनाऊँ तो मुझे उसे सीखनेके लिए किसी स्कूलमें जानेकी भी आवश्यकता नहीं है। और मैं अपनी मानसिक शक्ति पूरी तरह आध्यात्मिक खोज में लगा सकता हूँ, क्योंकि मेरा धन, बल्कि मेरी जीविका तो सुनिश्चित है। प्रसन्नता और वास्तविक धार्मिक गतिविधियोंकी सुरक्षा का सर्वोत्तम साधन वर्ण है। अन्य व्यवसायोंमें अपनी शक्ति केन्द्रित करनेके मतलब हैं कि मैं आत्मानुभव करनेकी अपनी शक्तिका क्रय करता हूँ या अपनी आत्माको भौतिक सुख-सुविधाके लिए बेचता हूँ।
प्रश्न : आप आध्यात्मिक कार्योंके लिए शक्तिको मुक्त करनेकी बात करते हैं। आज जो लोग अपने बाप-दादोंका धन्धा करते हैं उनमें कोई आध्यात्मिक संस्कृति है ही नहीं उनका वर्ण ही उन्हें इसके अयोग्य बना देता है।
उत्तर : हम वर्णकी विकृत धारणा लेकर बात कर रहे हैं। जब वर्णका वास्तवमें आचरण होता था उस समय हमारे पास आध्यात्मिक प्रशिक्षणके लिए काफी फुर्सत होती थी। आज भी, आप दूर गाँवोंमें जाइए और देखिए कि शहरी लोगोंके