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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

विनाशक है, प्राचीन सभ्यता पोषण करनेवाली है। अहिंसासे सबका कल्याण सघता है, हिंसा एकके विनाशपर दूसरेकी समृद्धिका पाया रखती है। प्रजातन्त्र सर्वथा लाभकारक नहीं है, राजसत्ता भी सर्वथा हानिकारक नहीं है। दोनोंकी अपनी-अपनी उपयोगिता है। वह कहाँतक उपयोगी है इसकी खोज करना राजनीतिक परिषदका काम है। क्योंकि परिषद सत्य और अहिंसाके द्वारा अपने ध्येयपर पहुँचना चाहती है।

अब हम इसपर विचार करें कि परिषद क्या कर सकती है। खादी, अछूतोद्धार, समाज-सुधार वगैरा काम तो हैं ही। इन कार्योंके द्वारा परिषद प्रजातन्त्रका पोषण करे। राजनीति-सम्बन्धी काम भी कुछ कम नहीं हैं। मद्यपान-निषेध, शिक्षा, रेल विभाग, बरसातके पानीका समस्त काठियावाड़के लिए संग्रह, समस्त काठियावाड़के वृक्षोंका संरक्षण और उनकी वृद्धि, समस्त काठियावाड़के लिए एक प्रकारकी जकात और उसका एक ही सा प्रबन्ध इत्यादि। राजा प्रजा दोनोंका कल्याण करनेवाली ऐसी दूसरी बातें भी कही जा सकती हैं। इनका महत्त्व बहुत बड़ा है। काठियावाड़ इन्होंके सहारे पनप सकता है। इनके बिना काठियावाड़ स्वयं अपने पैर में कुल्हाड़ी मारेगा।

ये कार्य साधनेके लिए राजाओंकी अपेक्षा उनके अमलदारोंकी मददकी कहीं अधिक आवश्यकता है। अमलदार वर्ग अगर स्वार्थी या संकीर्ण विचारोंके होंगे तो वे सुधार भी नहीं हो सकेंगे जो राजा खुद करना चाहेंगे। राजाके हाथ-पाँव तो उनके अमलदार हैं। और अमलदार वर्गका अर्थ है प्रजा। प्रजाका सुधार होगा तो राजा जरूर सुधरेंगे। पर हल्ला मचानेवाली प्रजाका एक बड़ा भाग तो अमलदारोंका है। इसलिए जबतक वे स्वार्थको नहीं भूल जाते, नीतिका पन्थ ग्रहण नहीं करते, अपनी जीविकाके लिए निर्भर नहीं बनते और निर्भयतापूर्वक किये जानेवाले सार्वजनिक कामोंको समझकर उनमें दिलचस्पी नहीं लेते तबतक राज्यों में सच्चा सुधार होनेकी आशा कम ही है। इसलिए राजनीतिक परिषदका क्षेत्र तो प्रजाके बीच ही होना और रहना चाहिए। प्रजा मूल है और राजा फल। मूल मीठा होगा तो फल मीठा ही होगा।

और काठियावाड़ राजनीतिक परिषदके नसीबमें अगर प्रतिष्ठा पाना बदा होगा तो मुख्य राज्योंमें वहाँ प्रजाकी अलग-अलग परिषदें होनी चाहिए और ये परिषदें निश्चय ही अपने-अपने राज्यकी हर तरहकी टीका विनयपूर्वक कर सकती हैं। इन परिषदोंको अपनी शक्ति बढ़ानी चाहिए। वह शक्ति पैदा करनेके लिए मी रचनात्मक काम होने चाहिए। इसीपर उनकी शक्तिका विकास निर्भर है।

इन कार्योंके लिए निःस्वार्थ, निडर सेवक चाहिए। वे कहाँसे मिलेंगे? फिलहाल जितने भी सेवक हैं यदि वे शान्तिसे अपना काम करते जायें तो उनकी संख्या में वृद्धि होगी। किसीके मनमें ऐसा कायरतापूर्ण विचार नहीं आना चाहिए कि मैं अकेला क्या कर सकूँगा।

इतना तो मैंने प्रजाजनके प्रति कहा। राजा अगर समझें तो राजनीतिक परि-पदके इस प्रस्तावसे उनकी जिम्मेवारी बहुत बढ़ गई है। आजतक वे आलोचना या निन्दाके डरसे अथवा उसके बहाने परिषदकी उपेक्षा करते थे, कुछ कतराते भी थे,