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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अभी काफी समयतक ऐसे समझौते के कारण ही भविष्य में भी परिषदका आयोजन किया जा सकेगा। यह बात परिषदकी अशक्तिकी सूचक थी। ऐसी अशक्त कोई परिषद न हो। जहाँ ऐसी अशक्तता होती है, वहाँ कहीं-न-कहीं कोई दोष या न्यूनता होती है। पर अशक्ति ढँकनेसे दूर नहीं होती। रोगको छिपानेवाला उसे बढ़ाता है। वह उस रोगको दूर करनेवाले उपायोंकी उपेक्षा करता है और आप ही अपना शत्रु बनता है।

विषय-निर्धारिणी समितिमें दो अवसर आये जब कि सभासदोंने देशी राज्योंकी व्यक्तिगत टीका करनेवाले दो प्रस्ताव उपस्थित किये। मैं यह नहीं कह सकता कि प्रस्तावोंको लानेका कोई कारण नहीं था। पर मैंने यह स्पष्ट देखा कि ऐसे प्रस्ताव लाना अथवा उनपर कुछ काम करना, परिषदकी शक्तिके बाहर था। ये प्रस्ताव तो समितिने निकाल डाले। किन्तु मैंने देखा कि ऐसे प्रस्ताव लाकर परिषद अपनी हस्ती अधिक दिनोंतक नहीं बनाये रख सकती। इससे मैंने परिषदको सलाह दी कि उसे अपनी अशक्ति, अपनी मर्यादाको जग जाहिर करना चाहिए। मैंने यह सुझाया कि ऐसा करनेसे परिषद अपनी अशक्ति शीघ्र दूर कर लेगी और अपनेको बचा लेगी।

विषय-निर्धारिणी समितिके लिए यह घूँट बड़ा कड़वा था। मुझे भी यह सलाह देना रुचता नहीं था पर मैं अपना धर्म स्पष्ट रूपसे समझ सकता था। दुखद-सुखद जो-कुछ सच्चा हो वह करना ही चाहिए। सच्चा सुख क्या बहुत बार जहर जैसा नहीं लगता? कितनोंको यह प्रस्ताव खला था, मगर तो भी, उन्होंने और दूसरोंने भी उदारता और दीर्घदृष्टिसे काम लेकर मेरी सलाह स्वीकार कर ली।

इससे मेरा उत्तरदायित्व बढ़ा। मैं जानता हूँ कि इस प्रस्तावका अगर कोई अनिष्ट परिणाम निकला तो उसमें मेरा दोष पहले गिना जायेगा। मुझे तो अनिष्ट परिणामका कोई मय नहीं है, इतना ही नहीं बल्कि मैं तो मानता हूँ कि अगर परिषद उस प्रस्तावका सदुपयोग करेगी, उसके अनुसार जो काम करनेको है, उन्हें करेगी तो मला परिणाम ही निकलना चाहिए। स्वेच्छापूर्वक लगाया हुआ अंकुश, स्वेच्छासे पाला हुआ संयम, संयमीके लिए हमेशा लाभदायी सिद्ध होते हैं। स्वेच्छासे लगाये हुए इस अंकुशपर दूसरा नियम लागु नहीं होता।

परिषद अगर मन, वचन और कर्मसे इस प्रस्तावका पालन करेगी तो मर्यादाके भीतर रहते हुए उसकी कार्य करनेकी शक्ति बढ़ेगी। ऐसी किसी मर्यादाके अभाव में राजा लोग व्यक्तिगत टीका अथवा निन्दाके भयसे परिषदकी बैठक करने देनेमें संकोच करते थे। मर्यादाको ठीक तौरपर जाननेसे परिषदके सदस्य राज्योंके व्यक्तिगत दोष दूर करनेके मोहक किन्तु व्यर्थ प्रयत्नमें लग जाते थे और उनसे जो हो सकें, ऐसे मोहकता रहित कामोंकी ओरसे वे आँखें मूँद लिया करते थे। अब या तो वे नीरस होनेपर भी सरस काम करेंगे अथवा अपना दरवाजा बन्द कर लेंगे। किसीको दिवाला निकालना नहीं रुचता, इसलिए हम ऐसी आशा रखें कि परिषदके पदाविकारी इच्छा अथवा अनिच्छासे भी जो करने लायक है, वही काम करेंगे।

इस प्रस्तावका ऐसा अर्थ तो कोई न करे कि इसके द्वारा हम संसारके सामने कबूल करते हैं कि कोई राज्य टीकाका पात्र नहीं है। निन्दा तो किसीकी भी न करें।