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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उठाये बिना, रिवाजोंकी सारासारताका विचार किये बिना उनसे चिपटे रह कर और किसी प्रकारका खर्च न करते हुए अगर स्वराज्य मिल सके तो बहुत-सी बहनें, और उसी भाँति भाई भी, उसे लेने को तैयार होंगे। पर स्वराज्य इस तरह तो नहीं मिल सकता। स्वराज्य लेनेके मानी हैं स्वार्थ त्यागकी शक्ति पैदा करना; और स्वार्थ-त्यागमें प्रान्तीयताका त्याग भी आ ही जाता है।

प्रान्तीयतासे राष्ट्रीय स्वराज्य तो मिल ही नहीं सकता, प्रान्तीय स्वराज्य मिलना भी और अधिक कठिन हो जाता है। इस संकीर्ण प्रान्तीयताको बनाये रखनेमें पुरुषोंकी अपेक्षा स्त्रियोंका हाथ शायद अधिक है। विविधताको कुछ हदतक ही बनाये रखना उचित है। पर इस हदको लाँघनेके बाद विविधताके नामसे पाले जानेवाले भोग और रिवाज राष्ट्र-भावनाके नाशक हैं। दक्षिणी साड़ी सुन्दर लगती है। पर जो सुन्दरता राष्ट्रकी कीमतपर मिलती हो, वह त्याज्य है। अगर कच्छी या पंजाबी ओढ़नी रखनेसे खादी सस्ती पड़े तो उसीमें हम सच्ची शोभा मानें। दक्षिणी कछोटा, गुजराती लटकती साड़ी, कच्छी पछेड़ा, और बंगाली तरीका—ये सभी साड़ी पहननेकी विविध राष्ट्रीय रीतियाँ हैं। इनमें से चाहे जिस रीतिसे साड़ी पहनकर उसे राष्ट्रीय रीति मानना चाहिए। इन सभी रीतियोंमें से वह रीति पसंद की जाये जिससे शरीर पूरा-पूरा ढके और कपड़ा कमसे कम लगे। यह रीति तो कच्छी घाघरे और पछेड़ेकी है। पछेड़ा तीन गजमें होता है। इसलिए गुजराती साड़ीकी बनिस्बत भी आधा ही खर्च हुआ, और जो बोझ कम हुआ वह नफेमें। यदि पछेड़ा और घाघरा एक ही रंगके हों तो एकाएक यह जान भी नहीं पड़ता कि साड़ी पहनी है या पछेड़ा। ऐसी राष्ट्रीय रीतियोंका विनिमय और अनुकरण स्तुत्य है।

श्रीमन्तोंके यहाँ अनेक प्रान्तोंकी पोशाक होना ठीक लगता है। इसमें कितनी विनय और राष्ट्रीय भावना भरी है कि गुजराती गृहस्थके घर बंगाली मेहमान आयें तो मालिक और मालकिन बंगाली पोशाक पहनें और गुजराती मेहमानका आदर सत्कार करते समय बंगाली गृहस्थ गुजराती पोशाक पहनें? पर यह तो राष्ट्रीय भावनावाले धनिक देश-प्रेमी ही कर सकते हैं। मध्यमवर्गके और गरीब देश-प्रेमी, उसीको पहननेमें अभिमान समझें जिस प्रान्तकी पोशाक खादी पहननेके लिए सस्ती और सरल हो। इतना ही नहीं, उस प्रान्तकी पोशाक अपनाते हुए वे इस बातका विचार करें कि वहाँके गरीब लोग क्या पहनते हैं और अपने लिए वैसी ही पोशाक तय करें।

स्वदेशी यह नहीं है कि हम अपने पोखरमें डूब मरें; स्वदेशी के मानी हैं अपने पोखरको जन-समुद्र में विसर्जित करना। यदि इन पोखरोंका पानी मैला होगा तो वह समुद्र भी मैला हो जायेगा। इसलिए इन्हें हमें पहले साफ करना होगा, उसके बाद ही उनका विसर्जन किया जा सकता है। होम हमेशा शुद्ध द्रव्यका, शुद्ध हाथोंसे ही हो सकता है। इसलिए हम सहज ही समझ सकते हैं कि वे स्थानीय रीति-रिवाज जो अपवित्र नहीं हैं, नीति-विरुद्ध नहीं हैं, वे ही राष्ट्रके उपयोगमें लिये जाने लायक हैं। इतनी बात समझ में आ सके तो राष्ट्र-प्रेम अन्तमें विश्व-प्रेमका रूप ले सकता है।