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ब्रिटिश मालका बहिष्कार

हमारे पास ऐसे विशेषज्ञ हैं जिन्होंने इसका स्वयं अनुभव प्राप्त किया है। इसके औचित्य के बारेमें दो मत हैं ही नहीं। इस उद्देश्यकी ओर बढ़ने से हमें रोकनेवाली केवल एक ही वस्तु है और वह है हमारा अपना ही अविश्वास। यह बात है तो आश्चर्यजनक मगर दुखद भी है कि हमें सभी विदेशी कपड़ेके बहिष्कारकी सफलतासे कहीं अधिक विश्वास कुछ खास-खास ब्रिटिश मालके बहिष्कारकी सफलतामें है।

मगर ठीक-ठिकानेसे सोच-समझकर एक योजना बनाये बिना यह बहिष्कार भी सफल नहीं हो सकता। अगर हम मात्र बहिष्कार ही करना चाहें, और जनताका आर्थिक कल्याण प्राप्त करनेके महत्त्वपूर्ण और स्थायी परिणामकी परवाह न करें तो हम देशी मिलोंका, हमारी शर्तोंपर सहयोग प्राप्त करके इसको तुरन्त ही सफल बना सकते हैं। जबतक कताई और बुनाई करनेवाली मिलें ईमानदारीसे और पूरे मनसे सहयोग नहीं करतीं, तबतक मिलके कपड़ोंके बलपर विदेशी कपड़ोंका बहिष्कार करना आत्महत्या करना होगा और सिर्फ अपना ही उल्लू सीधा करनेवाले मुनाफाखोर मिलवालोंका ही काम साधना होगा। अगर इस महान राष्ट्रीय कार्य में देशी मिलोंके कपड़ोंका कोई बड़ा योगदान रहना है, तो मिलवालोंको कपड़ेकी किस्म और उसका दाम निश्चित करनेके बारेमें, कांग्रेसके साथ समझौता करना ही पड़ेगा। अपनी मिलके हिस्सेदारोंकी रजामंदी और सहयोगके साथ मिल-एजेन्टोंको केवल अपने और अपने हिस्सेदारोंके ही हितोंके रक्षक बने रहनेका विचार छोड़ देना चाहिए और दोनोंको ही—एजेन्टों और हिस्सेदारोंको—सारे राष्ट्रके हित रक्षक बनना चाहिए। तब खादी के सहारे इस देशमें विदेशी कपड़ेका आयात बिलकुल ही बन्द हो सकता है। हालांकि समयके लिहाज से यह अधिक मुश्किल जरूर पड़ेगा, मगर केवल खादीके जरिये मिलोंके सहयोगके बिना भी विदेशी कपड़ेका सम्पूर्ण बहिष्कार कराया जा सकता है। तब भी मिलके कपड़ेका स्थान महत्त्वपूर्ण बना रहेगा, मगर वह तो मिल-मालिकोंकी इच्छाके बावजूद होगा। खादी मिल मालिकोंके लोभपर कारगर अंकुश लगा देगी, उसके कारण कपड़ेका कभी अकाल नहीं पड़ सकेगा, करोड़ों मूखों मरने- वालोंको इसके जरिये जीवन और आशा मिलेगी, सादा कपड़ा बुननेवालोंको यह उनका पुराना पेशा दे देगी, और अन्ततः, थोड़े ही दिनोंमें यह विदेशी कपड़ेकी जगह पूरी तौरपर ले लेगी तथा मिलवालोंके मुनाफोंको नियन्त्रित कर देगी। यह कब तक हो सकेगा? यह इस बातसे निर्धारित होगा कि महीन कपड़े के शौकका किंचित् त्याग और कुछ थोड़े पैसोंका त्याग जो हर एक आदमीके बसकी बात है करनेकी राष्ट्रकी इच्छा कितनी तीव्र है, और उसमें इस त्यागकी कितनी क्षमता है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया २६-१-१९२८
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