अभिशाप उसके सिरपर आ पड़ेंगे। चक्रवर्ती राजाओंका यह देश, जिसमें ३३ करोड़ जीवित यन्त्र पड़े हुए हैं, यन्त्र-युगका पुजारी हो जाये, तो समझना चाहिए कि हम रामके वंशज नहीं हैं, रावणके वंशज हैं। ये वचन हैं तो कड़वे, किन्तु ये हृदयके प्रेमसे निकले हैं। ठाकुरसाहबने अपने हृदयके उद्गार मेरे सामने रखे। जहाँ कहीं मुझे सहृदयता मिलती है, वहाँ मैं बेभान हो जाता हूँ और हृदय चीरकर समर्पित कर देता हूँ। यदि आज नहीं, तो मेरे मर जानेके बाद आप अनुभव करेंगे कि यह आदमी जो कहता था, सो ठीक कहता था। आप जिस दिन यन्त्र-युगको प्रधानता देंगे, उस दिन आप अपने गलेपर छुरी फिराने जैसा काम करेंगे। यदि भविष्य में कोई चंगेज खाँ हमपर हमला कर दे और तैंतीस करोड़ लोगोंको काटकर तीन लाख कर दे, तो सम्भव है ब्रिटेन और अमेरिकाकी तरह हमें यन्त्रोंकी जरूरत पड़ने लगे। अमेरिका और इंग्लैंडने तो लूटनेका धन्धा खड़ा कर रखा है। आप किसे लूटनेवाले हैं? कोई सबब नहीं है कि जो देश इतना मनोहर है, जहाँकी आबहवा इतनी अच्छी है, जहाँ विविध वनस्पतियाँ उत्पन्न होती हैं और जहाँ अन्य साधनोंकी अटूट निधी पड़ी हुई है, वह कंगाल होकर रहे। हम स्वयं अपने दुश्मन बने बैठे हैं। यही कारण है कि मैं खादी-खादी चिल्लाता फिरता हूँ।
इसके बाद गांधीजीने पोरबन्दर-परिषदके प्रस्तावों, अन्त्यजोद्धार तथा गो-पालनके सम्बन्ध में अपने उद्गार प्रकट किये। खादीके सम्बन्धमें मोरबीके जौहरियोंको लक्ष्य करते हुए उन्होंने कहा :
आप जौहरी लोग बाहरसे जो रुपया कमा लाते हो खादीकी तुलनामें उसकी कोई कीमत नहीं है। तुम्हारे हीरे रुईकी तरह नहीं चमचमाते। रुईपर तो कितने ही काव्य रचे गये हैं; हीरोंपर किसीने कोई काव्य नहीं रचा।
तदनन्तर गांधीजीने विभिन्न राज्यों द्वारा खादी कार्यमें दी गई मदद की चर्चा की तथा राजा और प्रजा दोनोंसे चरखेको यज्ञके रूपमें अपनानेकी विनती की। अपने भाषणका उपसंहार करते हुए उन्होंने पुनः राजा और प्रजाके पारस्परिक सम्बन्धोंकी ओर श्रोताओंका ध्यान खींचते हुए कहा :
आप लोगोंसे मेरी प्रार्थना है कि आप लोग परस्पर मीठे सम्बन्ध रखें। यथा राजा तथा प्रजा। इसी प्रकार यथा प्रजा तथा राजा। प्रजा बेईमान हो, कायर हो, प्रपंची हो, पाखण्डी हो, तो राजा क्या कर सकता है? सम्भव है कि राजा अच्छा हो तो वह बच जाये, किन्तु वह प्रजाको तो नहीं बचा सकेगा। यदि प्रजा अपनी स्त्रियोंको स्वयं सुरक्षित न रख सके, तो राजा उन्हें सुरक्षित कैसे रख सकता है? मोरबी—जैसे कस्बेमें जहाँ बारह-पन्द्रह हजारकी आबादी है, अनेक तड़ें या दल हों, झगड़े टंटे हों, तो इससे किस व्यक्तिका भला हो सकता है? इससे समाजका भी क्या भला हो सकता है? पारस्परिक टंटोंको भूलना चाहिए। सत्य और अहिंसाके सिवाय दूसरा धर्म नहीं है। तुम जैसे अहिंसाके उपासकोंको टंटे क्यों करने चाहिए? राग-द्वेष का अर्थ है हिंसा। चींटी और खटमलको न मारनेमें ही अहिंसा-धर्मकी समाप्ति नहीं