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भाषण : मोरबी में
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यह एक अलग बात है। इसका इतना ही मर्म है कि उन्होंने प्रजाको देखा तो उसे नमस्कार किया, प्रजाके मतको शिरोधार्य किया। यही बात 'रामायण' में दूसरी तरहसे आती है। रामचन्द्रजी गुप्तचरको नगरमें होनेवाली चर्चा सुनने भेजते हैं और उन्हें मालूम होता है कि एक धोबीके घरमें सीताजीके विषयमें अपवाद हो रहा था। वे तो जानते थे कि यह अपवाद निराधार है। उन्हें तो सीताजी प्राणसे भी प्यारी थीं। ऐसा कुछ हो ही नहीं सकता था जो उनके और सीताजी के बीचमें भेद उत्पन्न कर दे। फिर भी ऐसा अपवाद चलने देना उचित नहीं है, यह समझकर उन्होंने सीताजीका त्याग किया। वास्तवमें रामचन्द्र और सीता एक-दूसरेमें ओतप्रोत थे। सीता रामचन्द्रजीमें समायी हुई थीं और रामचन्द्रजी सीताजीमें। जिस सीताके लिए रामचन्द्र सेना लेकर चढ़े, रात-दिन वे जिसका ध्यान करते रहे, उन्होंने उसी सीताके शरीर-वियोगको आवश्यक माना। प्रजाके मतको मान देनेवाले ऐसे राजा रामका राज्य रामराज्य कहलाया। ऐसे राज्यमें श्वान जैसे किसी जीवको भी दुःख नहीं पहुँचाया जाता था, क्योंकि रामचन्द्रजी तो जीवमात्रका अंश अपनेमें देखते थे। ऐसे राज्यमें व्यभिचार, पाखण्ड और असत्य नहीं रहता। ऐसे सत्ययुगमें प्रजातन्त्र चलता रहता है। सत्य टूट गया तो राजा राजधर्मका पालन नहीं करता। तब बाहरसे आक्रमण होने लगते हैं। जब मनुष्यका रक्त सदोष हो जाता है, तब उसपर बाहरके जन्तुओंका आक्रमण होने लगता है। इसी तरह समाज रूपी शरीरके अस्वच्छ हो जानेपर उस समाजके अंग-रूप मनुष्योंपर बाहरसे आक्रमण शुरू हो जाता है। किन्तु जब राजा और प्रजाके बीच प्रेमका सम्बन्ध हो तो प्रजा एक शरीरकी तरह इस आक्रमणका मुकाबला करनेमें समर्थ रहती है। राज्य शासन तो प्रेमका शासन है। राजदण्डका अर्थ पशु-बल न होकर प्रेमका बन्धन है। राजा शब्द ही 'राज' अर्थात् शोभा पाना, इस धातुसे बना है। इसलिए राजाका अर्थ हुआ शोभनीय व्यक्ति। वह जितना जानता है प्रजा उतना नहीं जानती। उसने प्रजाको प्रेमपाशसे बाँध लिया है, इसलिए वह दासानुदास हैं। श्रीकृष्ण भी दासानुदास थे। और उन्होंने सेवककी तरह पाद-प्रहार भी सहन किये। मैं राजा-महाराजाओंसे कहता हूँ कि यदि वे राम और कृष्णके वंशज कहलानेकी इच्छा करते हों, तो उन्हें प्रजाका पादप्रहार सहने के लिए तैयार रहना चाहिए। आप प्रजाकी गालियाँ खाइए; प्रजा गैर-जिम्मेदार हो सकती है, राजा गैर-जिम्मेदार नहीं हो सकता। यदि राजा बुद्धि खो दे तो पृथ्वी रसातलको चली जाये।

इसके बाद गांधीजीने यन्त्र-युगके अभिशापकी चर्चा की और जौहरियों तथा जैन-श्रावकोंको—जिनकी मोरबीमें अच्छी-खासी बस्ती है—लक्ष्य करके कहा :

यह कृषि-प्रधान देश है और इसमें ७ लाख गाँव हैं। यन्त्र-युगसे इसकी रक्षा नहीं हो सकती। इसमें तो जीते-जागते यन्त्र हैं। इन जीते-जागते यन्त्रोंकी रक्षा करके ही देशकी रक्षा की जा सकती है; और ये हैं गोमाता और उसका वंश, उसके किसान मजदूर और उनका वंश। जहाँ ऐसे चेतनामय यन्त्र पड़े हों और जो हमेशा बढ़ते रह सकते हैं, यदि वहाँकी प्रजा जड़यन्त्र-युगकी प्रजा ही हो जाये, तो संसार-भरके