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पत्र : आर॰ रामचन्द्र रावको

में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा। हम लम्बे अर्सेसे एक ही परिवार के सदस्य बन चुके हैं और गम्भीर राजनीतिक मतभेदोंके बावजूद हम ऐसे ही बने रहेंगे। मुझे कई लोगोंके साथ ऐसे सम्बन्ध रखनेका सौभाग्य प्राप्त है। उदाहरण के लिए, शास्त्रीको ही ले लो। उनके और मेरे राजनीतिक दृष्टिकोणमें जमीन-आसमानका फर्क है, मगर उनके और मेरे बीच जो स्नेह-सम्बन्ध राजनीतिक मतभेदोंका भान होनेसे पहले ही पैदा हो चुका था, वह बना हुआ है और कई अग्नि परीक्षाएँ पार करके भी आज जीवित बना है।

तुम्हारी पताका फहरे, इसका एक शानदार तरीका सुझाऊँ। मुझे प्रकाशनके लिए एक पत्र लिखो, जिसमें तुम्हारे मतभेद प्रकट किये गये हों। मैं उसे 'यंग इंडिया' में छाप दूँगा और उसका संक्षिप्त उत्तर लिख दूँगा। तुम्हारा पहला पत्र मैंने पढ़ने और जवाब देनेके बाद फाड़ दिया था; दूसरा रख लिया है और अगर तुम और कोई खत लिखनेकी तकलीफ नहीं उठाना चाहते हो तो जो मेरे सामने है उसीको छापने के लिए तैयार हूँ। मेरी समझसे इसमें कोई आपत्तिजनक अंश नहीं है। लेकिन कोई हुआ तो विश्वास रखो, मैं ऐसे हर अंशको निकाल दूँगा। मैं उस पत्रको एक स्पष्ट और प्रामाणिक दस्तावेज मानता हूँ।

सप्रेम,

बापू

अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १३०४०) की फोटो-नकलसे तथा ए बंच ऑफ ओल्ड लेटर्ससे भी।

३५९. पत्र : आर॰ रामचन्द्र रावको[१]

आश्रम
साबरमती
१७ जनवरी, १९२८

प्रिय मित्र,

आपका पत्र इस तथ्यका प्रमाण है कि तेंदुआ अपनी चित्तियाँ नहीं बदल सकता। मुझे इस बातमें सीवी चोटसे बचाव करते हुए नगण्य सामग्री में से एक विचारणीय मामला तैयार करनेवाले पुराने कलक्टरकी छाया नजर आई। मैं एक उदाहरण लेता हूँ। अंग्रेज शासकोंने जितनी जमीन घेर रखी है वह बहुत ही नगण्य है। करोड़ों भारतीयोंकी तुलनामें उनकी संख्या तो और भी नगण्य है। सरकारी नौकरीमें अंग्रेजोंके मुकाबले 'देशी' लोग कहीं ज्यादा हैं। अतः आपके तर्कसे तो अंग्रेज

  1. यह पत्र रामचन्द्र रावके ९ जनवरीके पत्रके उत्तर में था जिसमें उन्होंने गांधीजीकी इस आलोचनाका खण्डन किया था कि मद्रासमें कांग्रेस अधिवेशनके दौरान आयोजित प्रदर्शनी भारत-विरोधी थी; देखिए "राष्ट्रीय कांग्रेस", ५-१-१९२८।