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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

क्या तुम्हें मालूम है कि जिन लेखोंकी[१] तुमने आलोचना की है उन्हें सिवाय तथाकथित 'अखिल भारतीय प्रदर्शनी' वाले लेखके, मैंने इसीलिए लिखा था कि उल्लिखित कार्योंकी मुख्य जिम्मेदारी तुम्हारी ही थी। मैंने अपने आपको एक प्रकारसे सुरक्षित समझा था, यह सोचकर कि तुम्हारे-मेरे बीचके सम्बन्धोंको देखते हुए मेरे लेखोंको उसी भावनासे समझा जायेगा, जिस भावनासे उनको लिखा गया था। फिर भी मैं देखता हूँ कि हर बातमें उनका असर गलत ही पड़ा। मुझे इसकी चिन्ता नहीं। कारण, यह स्पष्ट है कि ये लेख ही तुम्हें उस आत्म-दमनसे मुक्त कर सकते थे, जिससे तुम इतने वर्षोंसे अन्दर अन्दर घुट रहे थे। यद्यपि मुझे तुम्हारे-मेरे बीचका दृष्टि-भेद कुछ-कुछ दिखाई देने लगा था, फिर भी मुझे तनिक भी कल्पना नहीं थी कि ये मतभेद इतने गम्भीर हो जायेंगे। जहाँ तुम देशकी खातिर और इस विश्वासमें अपने-आपको बहादुरीके साथ दबा रहे थे कि मेरे साथ और मेरे नीचे अपनी इच्छाके विरुद्ध काम करके भी तुम राष्ट्रकी सेवा करोगे और बिना आँच आये निकल जाओगे, वहीं तुम इस अस्वाभाविक आत्म-दमनके भारके नीचे दबकर कुढ़ते रहे। और जबतक तुम उस स्थितिमें रहे, तुम उन चीजोंकी भी उपेक्षा करते रहे, जो अब तुम्हें मेरी गम्भीर त्रुटियाँ प्रतीत होती हैं। मैं 'यंग इंडिया' के पृष्ठोंसे तुम्हें दिखा सकता हूँ कि इतने ही जोरदार लेख मैंने कांग्रेसकी कार्रवाइयोंकी बाबत तब लिखे थे जब मैं कांग्रेसका सक्रिय पथ-प्रदर्शन कर रहा था। जब कभी कांग्रेसकी बैठकोंमें गैर-जिम्मेदारी और जल्दबाजीकी बातें या कार्रवाई होती थी तब भी मैं इसी तरह बोलता रहा हूँ। मगर जबतक तुम मूर्च्छित अवस्थामें थे, तबतक ये चीजें तुमको आजकी तरह नहीं खटकी थीं; और इसलिए तुम्हारे पत्रकी असंगतियाँ बताना मुझे बेकार मालूम होता है। इस समय तो मुझे भावी कार्रवाईकी ही चिन्ता है।

अगर तुमको मुझसे कोई स्वतन्त्रता चाहिए, तो मैं उस नम्रतापूर्वक अचूक वफादारीसे तुम्हें पूरी तरह स्वतन्त्र करता हूँ, जो तुमसे मुझे इन तमाम वर्षोंमें मिली है और जिसकी मैं तुम्हारी मनःस्थितिका ज्ञान प्राप्त हो जानेके कारण अब और ज्यादा कद्र करता हूँ। मुझे बिलकुल साफ दिखाई देता है कि तुम्हें मेरे और मेरे विचारोंके विरुद्ध खुली लड़ाई करनी चाहिए। कारण, यदि मैं गलतीपर हूँ तो मैं स्पष्ट ही देशकी ऐसी हानि कर रहा हूँ, जिसकी क्षति पूर्ति नहीं हो सकती, और इसे समझ लेनेके बाद तुम्हारा धर्म है कि मेरे खिलाफ बगावतमें उठ खड़े हो; अथवा यदि तुम्हें अपने निर्णयोंके ठीक होनेमें कोई शंका है तो मैं खुशीसे तुम्हारे साथ निजी रूपमें उनपर चर्चा करनेको तैयार हूँ। तुम्हारे और मेरे बीच मतभेद इतने बड़े और उग्र हैं कि हमारे लिए सहमतिका कोई आधार दिखाई नहीं देता। मैं तुमसे अपना यह दुःख नहीं छिपा सकता कि मैं तुम्हारे जैसा बहादुर, वफादार, योग्य और ईमानदार साथी खो रहा हूँ; परन्तु ध्येयकी सिद्धिके लिए राजनीतिक सहचरताको भी कुर्बान करना पड़ता है। इन सब विचारोंसे ध्येयको ही श्रेष्ठ मानना चाहिए। लेकिन राजनीतिक सहचरताकी समाप्तिसे अगर उसे समाप्त होना ही है—हमारी व्यक्तिगत घनिष्ठता

  1. देखिए "राष्ट्रीय कांग्रेस", ५-१-१९२८ और "स्वतन्त्रता बनाम स्वराज्य", १२-१-१९२८।