पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 35.pdf/५१३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४८५
भाषण : गुजरात विद्यापीठके दीक्षान्त समारोहमें

तो एक तरहका असर होगा; और जो उस भाषणको ध्यानपूर्वक सुनेंगे उनपर कुछ दूसरी तरहका असर होगा। आमतौरपर हम यह मानते हैं कि जो व्यक्ति घन्टों धारा-प्रवाह बोल सकता है, वह सुवक्ता है। किसी-किसीके मनमें यह बात उठ सकती है कि एन्ड्र्यूजको कदाचित् भाषण देनेका अभ्यास नहीं है इसलिए उन्होंने अपना भाषण लिखकर पढ़ा। किन्तु ऐसा सोचना भूल है। उन्होंने अपने लिखित भाषणमें इतना रस भर दिया था कि हम सभी उससे शराबोर हो गये। यह रस उनके हृदयसे छलका है। उन्होंने अपने भाषण में स्वर्गीय हकीम साहबका उल्लेख किया है। यों ऊपरसे देखनेपर किसीको लग सकता है कि हकीम साहबकी मृत्युसे स्नातकोंके दीक्षांत समारोहका क्या सम्बन्ध है, यह तो कला-विहीनताकी निशानी हुई। मुझे तो ऐसा लगता है कि उन्होंने इसीके द्वारा अपनी कला सूचित की और अपना उद्देश्य भी स्पष्ट कर दिया। एन्ड्र्यूज उम्र में आपसे तो बड़े ही हैं। उन्होंने अपने बचपनकी बात बताई। उन्होंने हकीम साहबके पास अपनी तालीम शुरू करनेकी बात कही। तबतक हकीम साहब मशहूर हो चुके थे और अपने तिब्बी ज्ञानकी मारफत राजा-रंककी सेवा कर रहे थे। एन्ड्र्यूजको लगा कि यही सच्ची शिक्षा वे उनसे ले रहे हैं। उन्होंने जो कहा उसे अपने अनुभवके आधारपर ही बताते हुए यह कहा कि मुझे अपने अध्यापकोंके लेक्चर याद नहीं हैं; किन्तु अपने इस अध्यापकके कामोंकी श्रेष्ठ और पुण्यतम स्मृति आज भी उनके मनमें बसी हुई है; वे उनके मनमें गहरे पैठ सके थे। शिक्षाका यही सार बतानेके लिए उन्होंने हकीमजीकी कहानी कही। इसमें अद्भुत कला भरी हुई है और यह करुणापूर्ण तो है ही। अपना भाषण पढ़ते हुए उन्होंने हमें वीर रसका आस्वादन कराया और अन्तमें त्यागका उपदेश दिया।

तदुपरान्त उन्होंने अपनी जीवन कथा सुनाई। हमारा हृदय निराशाके गर्तमें पड़ा हुआ है। हमें यह भय बना रहता है कि इमारत तो हमारे पास है किन्तु कहीं दो वर्ष बाद उसमें कौवे न बोलने लगें। निराशाकी इस भावनाकी उन्हें खबर है। इस सम्बन्धमें मैंने उनसे कोई बात नहीं की किन्तु वे तो हवाका रुख देखकर ही भाँप लेते हैं। इसीलिए उन्होंने आपसे कहा कि आपके पास तो इमारतें हैं, रुपये हैं, जमीन है तथा गुजरात जैसे प्रान्तमें पैसे भी मिलते ही रहते हैं किन्तु मैं जिस कालेजमें पढ़ा हूँ, उसके जन्मकी कहानी यदि मैं सुनाऊँ तो आपको आश्चर्य होगा और आपको आशाकी किरणें दीखने लगेंगी। वह एक छोटी-सी झोंपड़ीमें शुरू हुआ और सो भी एक साहसी विधवाके बलपर—वह विवाह के दिन ही विधवा हो गई थी। यदि वह चाहती तो पुनर्विवाह कर सकती थी किन्तु उसने सेवाधर्मको अपनाया। उस विधवाने साधु संन्यासियोंको खोजकर उनसे विद्यार्थियोंको शिक्षा देनेको कहा और उनके रहनेके लिए झोंपड़ियाँ बनवा दीं। उन्हीं झोंपड़ियोंको आज हम विशाल पेम्ब्रोक महाविद्यालयके रूपमें देखते हैं। जहाँसे स्पेंसर और ग्रे-जैसे कवि, पिट-जैसे धुरन्धर राजनीतिज्ञ तथा ब्राउन जैसे पण्डित निकले। यह बताकर उन्होंने आपको आश्वस्त किया है कि जो कहानी उनके कालेजकी है वही आपके कालेजकी भी समझिए। यदि आप यहाँ